बेडौल शरीर, मामूली शक्लसूरत, उस पर भी पकौड़े जैसी नाक, कुल मिला कर सतीश कौशिक में ऐसा कुछ नहीं था, जो उन्हें फिल्म इंडस्ट्री के लिए फिट करार देता हो. लेकिन अपनी बेमिसाल और बेजोड़ ऐक्टिंग के जरिए उन्होंने साबित कर दिया था कि शक्लसूरत वगैरह अभिनय प्रतिभा के सामने कोई मायने नहीं रखते और आदमी कुछ करने की ठान ले तो नामुमकिन कुछ भी नहीं होता. मनचाहा मुकाम पाने को बस 3 चीजें चाहिए - आत्मविश्वास, जिद और अपने काम के प्रति लगन, ये सब हों तो पहाड़ भी रास्ता दे देते हैं.
यह सब सतीश कौशिक में था, इसलिए वे दिल्ली से पुणे होते हुए 1979 में मुंबई चले गए थे, जोकि जिंदगी के लिहाज से एक बहुत बड़ा जोखिम था. ऐसा लगता नहीं कि उन्हें इस बात का एहसास रहा होगा कि इन दिनों यानी अस्सी के दशक में हिंदी फिल्मों से परंपरागत कामेडी विदा ले रही है.
अब तक महमूद, असरानी, जानी वाकर, आई. एस. जौहर, असित सेन, राजेंद्रनाथ, केस्टो मुखर्जी सहित बीरबल जैसे हास्य कलाकारों का दौर गुजर चुका था, जो पट्टेदार चड्ढी के लटकते नाड़े के अलावा भौंडेपन, फूहड़ता और ऊटपटांग हरकतों से ही दर्शकों को हंसा देते थे. तब कामेडी का मकसद मूल कहानी को थोडा ब्रेक देना भी होता था, जिस से दर्शक बोर न हों.
इस वक्त फिल्म इंडस्ट्री को ऐसे कामेडियनों की दरकार थी, जो ऐक्टिंग से भी हंसा सकें और कामेडी जानबूझ कर सी हुई न लगे. एक हद तक यह कमी देवेन वर्मा पूरी कर रहे थे लेकिन वह नाकाफी थी, जिसे पूरा करने में सतीश कौशिक का योगदान बेहद अहम था.
साल 1983 में प्रदर्शित कुंदन शाह निर्देशित फिल्म 'जाने भी दो यारो' पूरी तरह हास्य फिल्म थी, जिस में नसीरुद्दीन शाह, सतीश शाह ओम पुरी और पंकज कपूर जैसे दरजन भर धुरंधर कलाकार थे. लेकिन इन के बीच सतीश कौशिक दर्शकों और फिल्मी पंडितों को अपनी मौजूदगी का एहसास करा पाने में कामयाब रहे थे. इस फिल्म में वे भ्रष्ट ठेकेदार तनरेजा यानी पंकज कपूर के असिस्टेंट अशोक के रोल में थे.
Bu hikaye Manohar Kahaniyan dergisinin April 2023 sayısından alınmıştır.
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