गत जून मास में बैठे-बिठाए सोशल मीडिया के एक प्रख्यात यात्रा ग्रुप के माध्यम से कश्मीर दर्शन का कार्यक्रम बन गया। कश्मीर तो लगभग पंद्रह वर्ष पहले भी हम सपरिवार गए थे, पर तब हम आम सैलानियों की भांति श्रीनगर, गुलमर्ग और पहलगाम घूमकर लौट आए थे। इस बार कार्यक्रम में गुरेज़ घाटी और टीटवाल जैसे कश्मीर के कुछ ऐसे अनदेखे, अनसुने दर्शनीय स्थलों की बात थी, जिनके बारे में कश्मीर जा रहे आम पर्यटकों को जानकारी ही नहीं होती। भला ऐसे प्रस्ताव को कैसे नकारा जा सकता था ! 1 से 9 जून तक की इस नौ दिवसीय घुमक्कड़ी में हम 18 यात्री शामिल हुए जयपुर, दिल्ली, गुड़गांव, कसौली आदि शहरों से थे और हम सब चार कारों में सवार थे। ये चारों कारें 1 जून की सुबह अपने-अपने शहरों से चंडीगढ़ के लिए रवाना हुईं, जहां से आगे की यात्रा एक साथ की जानी थी।
लगभग 2,600 किमी की हमारी इस यात्रा में महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे, इसलिए आराम से चलते हुए और नियमित अंतराल पर विश्राम करते हुए हम पहली रात कठुआ (जम्मू संभाग) में रुके और अगली रात श्रीनगर के होटल में बिताई। इस प्रकार 1 और 2 जून के पड़ाव के बाद 3 जून की सुबह हमारी यात्रा गुरेज़ घाटी के लिए आगे बढ़ी।
केवल छह माह खुलती है घाटी
गुरेज़ वास्तव में कश्मीर के धुर उत्तर में बांदीपुरा जिले की एक तहसील है जिसकी श्रीनगर से दूरी 123 किमी है। गुरेज़ समुद्र तल से 8,000 फीट की ऊंचाई पर है, लेकिन वहां तक पहुंचने 11,672 फीट की ऊंचाई पर स्थित राज़दान दर्रे को पार करना होता है। साल के छह महीने राज़दान दर्रा भारी बर्फबारी के कारण यातायात के लिए बंद रहता है और इस कारण गुरेज़ का संपर्क भी शेष हिंदुस्तान से कटा हुआ रहता है। अप्रैल से सितंबर तक हम गुरेज़ देखने जा सकते हैं और मई-जून के महीने घूमने की दृष्टि से सर्वोत्तम हैं।
गुरेज़ सामरिक दृष्टि से बहुत संवेदनशील है, क्योंकि गुरेज़ और पाक अधिकृत कश्मीर को किशनगंगा नदी ही अलग करती है। ये नदी पाक अधिकृत कश्मीर में नीलम नदी के नाम जानी जाती है। आगे जाकर किशनगंगा पुनः पाकिस्तान की ओर मुड़ जाती है।
बांदीपुरा से गुरेज़ तक के मार्ग में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल की जांच चौकियां हैं जहां अपने आधार कार्ड और वाहन की जानकारी देकर हमें आगे बढ़ना होता है।
Bu hikaye Aha Zindagi dergisinin August 2024 sayısından alınmıştır.
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अंतरिक्ष केंद्र सतीश धवन
श्रीहरिकोटा स्थित उपग्रह प्रक्षेपण केंद्र का नाम जिनके नाम पर 'सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र' है, वे सही मायनों में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के केंद्र रहे हैं।
हरी-हरी धरती पर हर
वर्षा की विदाई वेला है। नदियों का कलकल निनाद गूंज रहा है, धरती ने हरीतिमा की चादर ओढ़ रखी है, प्रकृति का हर हिस्सा खिला-खिला, मुस्कराता-सा लग रहा है।
गजानन सुख कानन
भाद्रपद माह की शुक्ल चतुर्थी श्रीगणेश के आगमन की पुण्यमय तिथि है। देव अपना लोक छोड़ मर्त्य मानवों के निवास में उन्हें तारने आ बैठते हैं।
जब मंदिर में उतर आता है चांद
यायावर के सफ़र में तयशुदा गंतव्य तो उसका पसंदीदा होता ही है, राह के औचक पड़ाव भी कोई कम मोहक नहीं होते। बस, दरकार होती है एक खुले दिल और उत्सुक नज़र की। महाराष्ट्र के फलटण से खिद्रापुर के बीच की दूरी यात्रा की परिणति से पहले के छोटे-छोटे आनंद को संजोए हुए है इस बार की यायावरी।
भावनाओं के क़ैदी...
भावनाएं और तर्क हमारे व्यक्तित्व के दो अहम हिस्से हैं और दोनों ही ज़रूरी हैं। लेकिन कभी भावनाएं प्रबल हो जाती हैं तो तार्किक बुद्धि मौन हो जाती है। इसके चलते तनाव बेतहाशा बढ़ जाता है, आवेग में निर्णय ले लिए जाते हैं और फिर अक्सर पछताना ही पड़ता है। यही 'इमोशनली हाईजैक' होना है। जीवन का सुकून इससे उबरने की हमारी क्षमता पर निर्भर करता है।
मेरा वो मतलब नहीं था!
हमारे शब्द सामने वाले को चोट पहुंचा जाते हैं, फिर हम माफ़ी मांगते हुए सफाई देते हैं कि हमारा वह इरादा नहीं था। सवाल उठता है कि अगर इरादा नहीं था तो फिर वैसे शब्द मुंह से निकले कैसे?
...जहां चाह वहां हिंदी की राह
भाषा के मामले में असल चीजें हैं प्रवाह और प्रयोग...हिंदी शब्द समझने में सरल होंगे, अर्थ को ध्वनित करेंगे, और उनका नियमित प्रयोग होगा तो किसी भी क्षेत्र में अंग्रेज़ी शब्दों की घुसपैठ के लिए कोई बहाना ही नहीं बचेगा...
हिंदी के ज्ञान से सरल विज्ञान
पहले हमने दुनिया को विज्ञान का ज्ञान दिया और अब खुद एक विदेशी भाषा में विज्ञान पढ़ रहे हैं। इस बीच आख़िर हुआ क्या? विज्ञान आगे बढ़ गया और हिंदी पीछे रह गई या फिर हमने अपनी भाषा की क्षमता को जाने बग़ैर ही उसे अक्षम मान लिया?
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कोई बोली, भाषा बनती है जब वह लिखी जाती है, उसमें साहित्य रचा जाता है और विविध विषयों पर किताबें छपती हैं। पुस्तकों में भाषा का सुघड़ रूप होता है। हिंदी भाषा की विडंबना है कि उसकी किताबों में अंग्रेज़ी शब्दों की आमद बढ़ती जा रही है। कुछ को यह ज़रूरी लगती है तो बहुतों को किरकिरी। सबके अपने तर्क हैं। 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर आमुख कथा का पहला लेख इस अहम मुद्दे पर पड़ताल कर रहा है कि हिंदी किताबों में हिंदी क्यों घटती जा रही है?