किसी भी भाषा का साहित्य उसकी संस्कृति और उसके समकालीन इतिहास का भी एक दस्तावेज़ीकरण है। दुनियाभर के विद्वान इस बात पर सहमत है कि अगर कोई भाषा विलुप्त होती है या उसका प्रसार कम हो जाता है तो वह अपने साथ हज़ारों सालों की विरासत को क्षीण करती है या अंतत: उसका विलोप हो जाता है। इतिहास तो कुछ सभ्यताओं, मसलन सिंधु घाटी सभ्यता के बारे में इसीलिए पूरी तरह पता नहीं चल पाया है क्योंकि उसकी लिपि नहीं पढ़ी जा सकी है। हालांकि पूरी दुनिया के विद्वान उस पर काम कर रहे हैं, लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर वह लिपि और भाषा ही विलुप्त हो जाए तो वह एकमात्र खिड़की भी ख़त्म हो जाएगी जिसके माध्यम से उस पर ज़्यादा प्रकाश डाला जा सकता है।
ऐसे में आजकल इस पर उचित ही चर्चा और चिंता की जाती है कि हिंदी किताबों में कितनी हिंदी बची है और उसमें किस तरह से धीरे-धीरे अंग्रेज़ी के शब्दों की संख्या बढ़ती जा रही है। ख़ासकर किताबों के नाम इधर अंग्रेज़ी में रखने का चलन चिंताजनक रूप से बढ़ा है। उसके पक्ष में कई तरह के तर्क दिए जाते हैं जिसमें सारे तर्क औचित्य की कसौटी पर खरे नहीं उतरते।
कितनी अवांछनीय, कितनी अनिवार्य
किताबों के शीर्षक के संदर्भ में सबसे बड़ा तर्क उसके विक्रय और विपणन का है जिसमें विक्रय विभाग इस बात पर जोर देता है कि चूंकि अनूदित किताब पहले से अंग्रेज़ी में है तो उसका नाम पाठकों की ज़ुबान पर छाया रहता है और उसे देवनागरी में लिखकर हूबहू रखने से प्रचार और विक्रय में आसानी होती है। भारत या इस जैसे अन्य औपनिवेशिक दासता झेल चुके देश में यह बड़ी समस्या है जहां अनुवाद, साहित्य का एक बड़ा हिस्सा बन गया है। ज्ञान का प्रवाह, ख़ासकर कथेतर साहित्य में अंग्रेज़ी से हिंदी या अन्य भाषाओं की तरफ़ लगभग इकतरफ़ा होता है। ऐसे में किताबें अंग्रेज़ी में पहले आती हैं और सेल्स की टीम का दबाव होता है कि मूल नाम ही रखा जाए क्योंकि उसके प्रचार में बारंबारता का लाभ (रिकॉल वैल्यू) बरक़रार रहे।
Bu hikaye Aha Zindagi dergisinin September 2024 sayısından alınmıştır.
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अंतरिक्ष केंद्र सतीश धवन
श्रीहरिकोटा स्थित उपग्रह प्रक्षेपण केंद्र का नाम जिनके नाम पर 'सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र' है, वे सही मायनों में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के केंद्र रहे हैं।
हरी-हरी धरती पर हर
वर्षा की विदाई वेला है। नदियों का कलकल निनाद गूंज रहा है, धरती ने हरीतिमा की चादर ओढ़ रखी है, प्रकृति का हर हिस्सा खिला-खिला, मुस्कराता-सा लग रहा है।
गजानन सुख कानन
भाद्रपद माह की शुक्ल चतुर्थी श्रीगणेश के आगमन की पुण्यमय तिथि है। देव अपना लोक छोड़ मर्त्य मानवों के निवास में उन्हें तारने आ बैठते हैं।
जब मंदिर में उतर आता है चांद
यायावर के सफ़र में तयशुदा गंतव्य तो उसका पसंदीदा होता ही है, राह के औचक पड़ाव भी कोई कम मोहक नहीं होते। बस, दरकार होती है एक खुले दिल और उत्सुक नज़र की। महाराष्ट्र के फलटण से खिद्रापुर के बीच की दूरी यात्रा की परिणति से पहले के छोटे-छोटे आनंद को संजोए हुए है इस बार की यायावरी।
भावनाओं के क़ैदी...
भावनाएं और तर्क हमारे व्यक्तित्व के दो अहम हिस्से हैं और दोनों ही ज़रूरी हैं। लेकिन कभी भावनाएं प्रबल हो जाती हैं तो तार्किक बुद्धि मौन हो जाती है। इसके चलते तनाव बेतहाशा बढ़ जाता है, आवेग में निर्णय ले लिए जाते हैं और फिर अक्सर पछताना ही पड़ता है। यही 'इमोशनली हाईजैक' होना है। जीवन का सुकून इससे उबरने की हमारी क्षमता पर निर्भर करता है।
मेरा वो मतलब नहीं था!
हमारे शब्द सामने वाले को चोट पहुंचा जाते हैं, फिर हम माफ़ी मांगते हुए सफाई देते हैं कि हमारा वह इरादा नहीं था। सवाल उठता है कि अगर इरादा नहीं था तो फिर वैसे शब्द मुंह से निकले कैसे?
...जहां चाह वहां हिंदी की राह
भाषा के मामले में असल चीजें हैं प्रवाह और प्रयोग...हिंदी शब्द समझने में सरल होंगे, अर्थ को ध्वनित करेंगे, और उनका नियमित प्रयोग होगा तो किसी भी क्षेत्र में अंग्रेज़ी शब्दों की घुसपैठ के लिए कोई बहाना ही नहीं बचेगा...
हिंदी के ज्ञान से सरल विज्ञान
पहले हमने दुनिया को विज्ञान का ज्ञान दिया और अब खुद एक विदेशी भाषा में विज्ञान पढ़ रहे हैं। इस बीच आख़िर हुआ क्या? विज्ञान आगे बढ़ गया और हिंदी पीछे रह गई या फिर हमने अपनी भाषा की क्षमता को जाने बग़ैर ही उसे अक्षम मान लिया?
फिल्म नगरिया की भाषा
कितनी अजीब बात है कि हिंदी फिल्म उद्योग की भाषा हिंदी नहीं है। हिंदी फिल्मों में शुद्ध हिंदी का मज़ाक़ बनाया जाता है। सेट पर बातचीत अंग्रेज़ी में होती है, पटकथा अंग्रेज़ी में लिखी जाती है और संवाद रोमन में। हिंदी फिल्मों से करोड़ों कमाने वाले सितारे हिंदी बोलने में हेठी देखते हैं। हालांकि इस घटाटोप के बीच अब आशा की कुछ किरणें चमकने लगी हैं...
हिंदी किताबों में हिंदी
कोई बोली, भाषा बनती है जब वह लिखी जाती है, उसमें साहित्य रचा जाता है और विविध विषयों पर किताबें छपती हैं। पुस्तकों में भाषा का सुघड़ रूप होता है। हिंदी भाषा की विडंबना है कि उसकी किताबों में अंग्रेज़ी शब्दों की आमद बढ़ती जा रही है। कुछ को यह ज़रूरी लगती है तो बहुतों को किरकिरी। सबके अपने तर्क हैं। 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर आमुख कथा का पहला लेख इस अहम मुद्दे पर पड़ताल कर रहा है कि हिंदी किताबों में हिंदी क्यों घटती जा रही है?