राजधानी जयपुर से 235 किलोमीटर दूर नागौर में 18 नवंबर की सुबह 10 बजे मौसम थोड़ा सर्द था, लेकिन वहां की सड़कों पर सियासी गर्मी साफ झलक रही थी. उस दिन नागौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली के कारण सड़कों पर भाजपा कार्यकर्ताओं का हुजूम उमड़ पड़ा था. रैली वहां के स्टेडियम में दोपहर बाद शुरू होने वाली थी, लेकिन सुबह से ही रैली की के बाहर काफी भीड़ जमा थी. स्टेडियम के बाहर सड़क के दूसरी तरफ दर्जनों बुजुर्ग सड़क पर बैठे सियासी जोड़-भाग करने में व्यस्त थे. सफेद धोती-कुर्ता, काली जैकेट तथा लाल साफा बांधे बैठे उन्हीं में से एक बुजुर्ग हनुमान राम बोले, "म्हैं तो बाबा री पोती नै देखबा आया हां (हम तो बाबा (नाथूराम मिर्धा) की पोती (ज्योति मिर्धा) को देखने आए हैं)." इन बुजुर्गों के इस सियासी क्रेज को इस बात से समझा जा सकता है कि 39 साल बाद नागौर की सियासत में एक बार फिर वैसा ही मुकाम आया है जैसा 1984 में नागौर से दिग्गज नेता नाथूराम मिर्धा और उनके भतीजे रामनिवास मिर्धा के आमने-सामने चुनाव लड़ने पर आया था. देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के पक्ष में उठी सियासी लहर में भतीजे रामनिवास मिर्धा ने चाचा नाथूराम को 48,535 मतों से पछाड़ अगले ही दिया था, लेकिन साल 1989 में हुए चुनाव में नाथूराम मिर्धा ने भतीजे रामनिवास को एक लाख 90 हजार से भी ज्यादा वोटों से शिकस्त देकर अपनी हार का बदला ले लिया. अब रामनिवास मिर्धा के बेटे हरेंद्र मिर्धा और नाथूराम मिर्धा की पोती ज्योति मिर्धा चुनावी मैदान में आमने-सामने हैं और उनका रिश्ता भी चाचा-भतीजी का है.
वहीं, हरेंद्र मिर्धा और ज्योति मिर्धा के लिए यहां से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हबीबुर्रहमान चुनौती बने हुए हैं. हबीबुर्रहमान यहां से दो बार भाजपा से विधायक रह चुके हैं. साल 2018 में टिकट नहीं मिलने पर उन्होंने कांग्रेस का हाथ थाम लिया था, लेकिन भाजपा के मोहनाराम चौधरी के सामने चुनाव नहीं जीत पाए. इस बार कांग्रेस ने उनकी जगह हरेंद्र मिर्धा पर दांव खेला तो हबीबुर्रहमान ने निर्दलीय मोर्चा खोल दिया है. हरेंद्र मिर्धा 1998 के बाद से चार चुनाव हार चुके हैं, तो ज्योति मिर्धा भी साल 2014 और 2019 में हार का स्वाद चख चुकी हैं.
Bu hikaye India Today Hindi dergisinin December 06, 2023 sayısından alınmıştır.
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नहरें: थीं तो बेशक ये पानी के ही लिए
सीवान शहर के पास जुड़कन गांव के कृष्ण कुमार अपने गांव में खुदी पतली-सी नहर की पुलिया पर बैठे मिले. ऐन नहर के किनारे उनका पंपसेट लगा था, जिससे वे अपने खेत की सिंचाई कर रहे थे. वे नहर के बारे में पूछते ही उखड़ गए और कहने लगे, \"50 साल पहले नहर की खुदाई हुई थी. हमारे बाप-दादा ने भी इसके लिए अपनी जमीन दी. हमारा दस कट्ठा जमीन इसमें गया. जमीन का पैसा मिल गया था. मगर इस नहर में एक बूंद पानी नहीं आया. सब जीरो हो गया, जीरो पानी आता तो क्या हमको पंपसेट में डीजल फूंकना पड़ता.\"