महज 22 साल की रिया दासगुप्ता पहले ही तीन पूर्णकालिक नौकरियां कर चुकी हैं और अब चौथी नौकरी एक प्रकाशन में कर रही हैं. वे नौकरी छोड़ने को लेकर कोई शिकवा नहीं करतीं. कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में ग्रेजुएट रिया कहती हैं, "पहली दो नौकरियों में मेरे साथ काम करने वालों और सुपरवाइजरों से नहीं निभी. तीसरी में मुझे अधिक घंटों तक और सप्ताहांत में बिना किसी अतिरिक्त पारिश्रमिक के काम करने को कहा जाता था. मैंने अपने माता-पिता को काम के लिए जिंदगी और सेहत की परवाह नहीं करते देखा है. मैं वैसा नहीं करना चाहती. मैं ऐसे मौके चाहती हूं जो आगे बढ़ने का अवसर दें." दासगुप्ता की ही उम्र की मुंबई की श्रेया प्रसाद का भी नजरिया कुछ ऐसा ही है. उन्हें याद है कि उनके पिता बुखार में भी काम पर जाया करते थे. श्रेया कहती हैं, "उनके पास विकल्प नहीं था." उनके पिता को 30 साल की उम्र में कर्ज चुकाना था और एक बच्चे की परवरिश करनी थी. वे कहती हैं, "मैं बच्चा नहीं चाहती और मेरे पास पहले ही घर और कार है. मुझे पैसे के लिए नहीं, बल्कि संतुष्टि के लिए काम करने की सुविधा है. अगर मैं संतुष्ट नहीं हूं तो नौकरी छोड़ सकती हूं."
'बेबी बूमर्स' और जेन एक्स (जिनका जन्म क्रमशः 1946-1964 और 1965-1980 के बीच हुआ था) पीढ़ी के लोग रिया और श्रेया जैसी युवाओं पर नाक-भौंह सिकोड़ेंगे और उन्हें 'लापरवाह' पीढ़ी कहेंगे. माजरा यह है कि 'जेन जेड' खुद की परवाह कम नहीं कर सकती. यही बात दुनियाभर के नियोक्ताओं को बाल नोचने पर मजबूर कर रही है, क्योंकि उन्हें युवा पीढ़ी की बदलती प्राथमिकताओं के साथ तालमेल बिठाना है, जो पिछली पीढ़ी की तरह 'भागदौड़' नहीं करना चाहती या कॉर्पोरेट सफलता की तलाश में जिंदगी को कुर्बान नहीं करना चाहती. इसके बदले वह सार्थक, जोशीले काम को तरजीह देती है. शायद यही वजह है कि हाल ही में इन्फोसिस के सह-संस्थापक एन. आर. नारायणमूर्ति की युवाओं को सप्ताह में 70 घंटे काम करने की दी गई सलाह पर आलोचनाओं की झड़ी लग गई. उस सलाह को लेकर अविश्वास और क्षोभ जताने से लेकर निर्मम मीम्स और चुटकुलों की बाढ़ आ गई.
Bu hikaye India Today Hindi dergisinin April 10, 2024 sayısından alınmıştır.
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परदेस में परचम
भारतीय अकादमिकों और अन्य पेशेवरों का पश्चिम की ओर सतत पलायन अब अपने आठवें दशक में है. पहले की वे पीढ़ियां अमेरिकी सपना साकार होने भर से ही संतुष्ट हो ती थीं या समृद्ध यूरोप में थोड़े पांव जमाने का दावा करती थीं.
भारत का विशाल कला मंच
सांफ्ट पावर से लेकर हार्ड कैश, हाई डिजाइन से लेकर हाई फाइनेंस आदि के संदर्भ में बात करें तो दुनिया के अन्य हिस्सों की तरह भारत की शीर्ष स्तर की कला हस्तियां भी भौतिक सफलता और अपनी कल्पनाओं को परवान चढ़ाने के बीच एक द्वंद्व को जीती रहती हैं.
सपनों के सौदागर
हम ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां मनोरंजन से हौवा खड़ा हो है और उसी से राहत भी मिलती है.
पासा पलटने वाले महारथी
दरअसल, जिंदगी की तरह खेल में भी उतारचढ़ाव का दौर चलता रहता है.
गुरु और गाइड
अल्फाज, बुद्धिचातुर्य और हास्यबोध उनके धंधे के औजार हैं और सोशल मीडिया उनका विश्वव्यापी मंच.
निडर नवाचारी
खासी उथल-पुथल मचा देने वाली गतिविधियों से भरपूर भारतीय उद्यमिता के क्षेत्र में कुछ नया करने वालों की नई पौध कारोबार, टेक्नोलॉजी और सामाजिक असर पैदा करने के नियम नए सिरे से लिख रही है.
अलहदा और असाधारण शख्सियतें
किसी सर्जन के चीरा लगाने वाली ब्लेड की सटीकता उसके पेशेवर कौशल की पहचान होती है.
अपने-अपने आसमान के ध्रुवतारे
महानता के दो रूप हैं. एक वे जो अपने पेशे के दिग्गजों के मुकाबले कहीं ज्यादा चमक और ताकत हासिल कर लेते हैं.
बोर्डरूम के बादशाह
ढर्रा-तोड़ो या फिर अपना ढर्रा तोड़े जाने के लिए तैयार रहो. यह आज के कारोबार में चौतरफा स्वीकृत सिद्धांत है. प्रतिस्पर्धा से प्रेरित होकर भारत के सबसे ताकतवर कारोबारी अगुआ अपने साम्राज्यों को मजबूत कर रहे हैं. इसके लिए वे नए मोर्चे तलाश रहे हैं, गति और पैमाने के लिए आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस सरीखे उथल-पुथल मचा देने वाले टूल्स का प्रयोग कर रहे हैं और प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए नवाचार बढ़ा रहे हैं.
देश के फौलादी कवच
लबे वक्त से माना जाता रहा है कि प्रतिष्ठित शख्सियतें बड़े बदलाव की बातें करते हुए सियासी मैदान में लंबे-लंबे डग भरती हैं, वहीं किसी का काम अगर टिकता है तो वह अफसरशाही है.