जापानी में एक शब्द है- करोशी, यानी काम के बोझ से मौत. भारत में हाल में ऐसी एक त्रासदी से साबका पड़ा. सितंबर में एक परेशान मां ने अपनी बेटी बॉस को चिट्ठी लिखकर उस "कार्य संस्कृति" की लानत-मलामत की " जो काम का बेहिसाब महिमामंडन करती है और काम करने वाले इंसानों की कतई परवाह नहीं करती." उनका यह गुस्सा जवान बेटी, प्रतिभाशाली चार्टर्ड अकाउंटेंट ऐना सेबेस्टियन पेरायिल की जान जाने से उपजा था. ऐना वैश्विक लेखा तथा परामर्श फर्म ईवाइ की सहयोगी एसआर बाटलीबॉय में अपने 'ड्रीम जॉब' में चार महीने दिन-रात जुटे रहने के बाद अचानक घर पर गिर पड़ीं और प्राण त्याग दिए. वे सिर्फ 26 साल की थीं.
ऐना की मां ने लिखा, "काम के बोझ, नए माहौल और देर तक लगातार कई-कई घंटे काम करने से वह शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक रूप से टूट गई. नौकरी जॉइन करने के फौरन बाद उसे बेचैनी, अनिद्रा और तनाव ने घेर लिया, लेकिन वह खुद को जैसे-तैसे खींचती रही, यह मानकर कि कड़ी मेहनत और लगन ही कामयाबी की कुंजी है... लगातार मांग बढ़ाते जाना और अवास्तविक उम्मीदों को पूरा करने का दबाव झेलकर जिंदा रह पाना कतई संभव नहीं, और इससे इतनी संभावनाओं वाली एक लड़की जान से हाथ धो बैठी. "
बेचैनी, अनिद्रा, तनाव... इनसे आज देश में अनेक कामगारों का वास्ता है. सबसे बढ़कर तो जेन जी या 1995 से 2012 के बीच पैदा हुई पीढ़ी इसे बुरी तरह झेल रही है. ऑनलाइन इमोशनल वेलनेस प्लेटफॉर्म योरदोस्त के 2023 में 2,000 से ज्यादा कर्मचारियों के सर्वे में पाया गया कि 60.1 फीसद भारी तनाव से ग्रस्त हैं, जो 2022 के मुकाबले 30.3 फीसद ज्यादा है. तनाव का असर 21-30 वर्ष आयु वर्ग में सबसे ज्यादा है. इस आयु वर्ग के 64.4 फीसद ने भारी तनाव झेलने की शिकायत की, जबकि 41-50 वर्ष आयु वर्ग में यह आंकड़ा 53.6 फीसद था.
Bu hikaye India Today Hindi dergisinin November 27, 2024 sayısından alınmıştır.
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