जैसा समाज वैसे बाबा
Outlook Hindi|August 19, 2024
अब भारतीय सिनेमा में परदे पर बाबाओं को फर्जी, ठग और खलनायक के रूप में दिखाना आम बात
अपेक्षा प्रियदर्शिनी
जैसा समाज वैसे बाबा

कालजयी हिंदी फिल्म, गाइड (1965) में, उदयपुर का सबसे लोकप्रिय पर्यटक गाइड राजू (देव आनंद) गहन परिवर्तन से गुजरता है। भगवा वस्‍त्र में भूख से बेहाल साधु के रूप में वह अपने गांव में सूखा खत्म करने के लिए एक पुराने मंदिर के खंडहरों में बैठा है। खुद के साथ उसका एक आंतरिक संवाद चल रहा है, ‘‘जहां अपने आप सिर झुक जाते हैं, उस पत्थर को भी भगवान का रूप मान लिया जाता है। जिस जगह को देखकर परमात्मा की याद आए, वो तीर्थ कहलाता है और जिस आदमी के दर्शन से परमात्मा में भक्ति जागे वो महात्मा कहलाता है।’’

लोगों की गहरी भक्ति से उपजी समझ से परिपूर्ण ये पंक्तियां भौतिक लालच से प्रेरित जीवन के बाद राजू की अप्रत्याशित आध्यात्मिक यात्रा को नया आकार देती हैं। बहुभाषी, जुनूनी, उत्साह के साथ पर्यटकों को शहर के दर्शनीय स्थल दिखाने वाला उदयपुर का सबसे अधिक मांग वाला टूर गाइड एक दिन आध्यात्मिक रूप से खाली लोगों के लिए शांत, निष्पक्ष मार्गदर्शक के रूप में बदल जाता है।

गाइड दुर्लभ फिल्म थी, जिसने न केवल आस्था और धार्मिकता के मामलों पर सौम्यता से बात की, बल्कि भारतीय संदर्भ में साधुओं के चित्रण के प्रति दया भाव भी दिखाया। हालांकि, पिछले कुछ दशकों में, भारतीय सिनेमा में बाबा संस्कृति और उनके अनुयायियों को जिस तरह दिखाया गया, उससे कहीं से भी न्यायोचित नहीं कहा जा सकता।

भारतीय फिल्मों का, विभिन्न क्षेत्रों और भाषाओं से हटकर, धर्म के साथ एक विवादास्पद रिश्ता रहा है। भारतीय समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी बाबाओं की संस्कृति अक्सर इन फिल्मों के लिए धर्म की अवधारणा और उसकी पहुंच में मध्यस्थता का एक तरीका रही है। इस जुड़ाव के बारे में दिलचस्प बात यह है कि कैसे संस्कृति का बोध कराने वाली भक्ति और पौराणिक विषयों पर आधारित फिल्मों से शुरू हुआ भारतीय सिनेमा, आज उस बिंदु पर पहुंच गया है, जहां बाबाओं को ठग के रूप में दिखाना आम बात हो गई है। यह आश्चर्यजनक है कि यह स्थिति अभी भी बनी हुई है, जबकि वास्तविक जीवन के बाबाओं और देवियों, संतों और चमत्कार दिखाने वालों के लिए बाजार में अभी भी बहुत संभावनाएं बची हुई हैं। तब सवाल उठता है कि रील और रियल के बीच इतना विरोधाभास आखिर बना कैसे रहता है?

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