ज्यादा नहीं 200 साल पहले तक जीवन ज्यादा महंगा और दुष्कर था. बिजली, पानी और आज जैसी चमचमाती पक्की सड़कें सपने जैसी बातें हुआ करती थीं. कहने को तो चारों तरफ पानी था लेकिन उसे लेने नदी, कुओं और तालाबों तक जाना पड़ता था. आम लोगों के दिन का 8वां हिस्सा तो पानी ढोने में ही निकल जाता था.
सहूलियत और सम्मानजनक तरीके से पेट भर पाना मुश्किल काम था जिस की अपनी वजहें भी थीं. तब मौजूदा साधन भी कुछ सीमित लोगों के लिए हुआ करते थे. चूंकि टैक्नोलौजी यानी तकनीकी न के बराबर थी, इसलिए समाज पर रसूखदारों का कब्जा और दबदबा था. इस तथ्य को अब समझना आसान नहीं तो आज बहुत ज्यादा मुश्किल भी नहीं है जिसे मध्य प्रदेश के शहर सागर के आलोक की बातों से समझा जा सकता है.
65 वर्षीय आलोक सरकारी नौकरी से रिटायर्ड हैं और पढ़नेलिखने के खासे शौकीन हैं. उन के दादाजी की बरात अब से कोई 110-115 साल पहले सागर से विदिशा गई थी जिस की चर्चा सालोंसाल चली थी और उन्होंने भी सुनी थी. संपन्न कायस्थ होने के नाते उस दौर के हिसाब से यह शादी धूमधाम से हुई थी. उस वक्त में धूमधाम का एक बड़ा मतलब होता था बरात का बैलगाड़ियों से जाना. 6 बैलगाड़ियों में कोई 36 लोग सवार हो कर विदिशा के लिए रवाना हुए थे. यह बरात 5 दिन में 160 किलोमीटर का सफर तय कर मंजिल तक पहुंची थी.
एक बैलगाड़ी में बरातियों के रास्तेभर का राशन, चूल्हाचक्की, बरतन, कपड़े, बिस्तर सहित अन्य सामान रखा गया था. उस वक्त में बैलगाड़ी भी गांव या शहरों में हर किसी के पास नहीं होती थी बल्कि संपन्न किसानों के पास हुआ करती थी जो ऊंची जाति वाले ही हुआ करते थे. इस बरात के लिए 2 बैलगाड़ियां रिश्तेदारों से ली गई थीं और 2 जमींदार साहब से अनाज के बदले किराए पर ली गई थीं.
Bu hikaye Sarita dergisinin December Second 2022 sayısından alınmıştır.
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