शादी या बच्चे खुशी का पैमाना नहीं

हमारे समाज में आज भी 25 वर्ष की उम्र क्रौस करते ही इंडियन पेरेंट्स को अपने बच्चों की शादी की चिंता सताने लगती है. आज भी अधिकांश लोग सोचते हैं जिंदगी का मकसद शादी कर के घर बसाना और बच्चे पैदा करना है. प्रोफैशनली सैटल होने के बाद उन का नेक्स्ट टारगेट बच्चों की शादी होता है. वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उन का मानना है कि समय से शादी, फिर समय से बच्चे लाइफ का एक जरूरी हिस्सा है, जिस के बिना उन के बच्चों की जिंदगी सैटल नहीं मानी जाएगी.
भले ही उन की अपनी शादी में अनेक प्रौब्लम्स हों. वे यह बात समझ नहीं सकते कि लाइफ शादी के बिना भी खूबसूरत हो सकती है. दरअसल वे शादी और बच्चों को खुश होने का पैमाना जिंदगी में सैटल होने का पैरामीटर और बुढ़ापे का सहारा मानते हैं. उन्होंने खुद शादी इस डर से की होती है कि बुढ़ापे में उन का क्या होगा, उन की प्रौपर्टी का क्या होगा, अकेले जीवन कैसे बीतेगा.
शादी एक पर्सनल डिसिजन
शादी करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन यह पूरी तरह पर्सनल निर्णय होना चाहिए कि कोई शादी करना चाहता है या नहीं. दरअसल, शादी समाज द्वारा दिया गया एक लेबल है. आप जरूरत या इच्छा न होने पर भी अगर शादी करते हैं तो यह एक अपराध है क्योंकि तब आप अपने साथसाथ जिस से शादी करते हैं उस व्यक्ति के जीवन के दुख का रीजन भी बनेंगे.
सोशल मीडिया पर प्रीवैडिंग शूट, शादी, हनीमून, बेबी शावर की फोटोज देखने में बहुत लुभावनी लगती हैं, लेकिन रियल लाइफ में इन सब सामाजिक रीतिरिवाजों से गुजरने के बाद जब रियलिटी सामने आती है तो सारे सपने हवा हो जाते हैं और तब शादीबच्चे सब किसी बोझ से कम नहीं लगते.
खुशी की गारंटी नहीं
फ्यूचर के बारे में सोचसोच कर शादी का प्रैशर लेने से अच्छा है कि अपने सपनों के बारे में सोचा जाए, अपनी जरूरतों को समझा जाए, अपनी पहचान के बारे में सोचा जाए क्योंकि केवल शादी, पतिपत्नी और बच्चे ही आप की पहचान नहीं. किसी के साथ शादी में बंधने का निर्णय तभी लेना चाहिए जब आप उस के साथ पूरा जीवन बिताने को तैयार हों.
Bu hikaye Sarita dergisinin March Second 2025 sayısından alınmıştır.
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