नेहरूवादी मानवतावाद और भारत का विकास
Business Standard - Hindi|December 19, 2024
आजादी के बाद पहले डेढ़ दशक के नियोजित विकास की नीतियों को नेहरूवादी समाजवाद के बजाय नेहरूवादी मानवतावाद कहना बेहतर होगा। विस्तार से बता रहे हैं नितिन देसाई
नितिन देसाई
नेहरूवादी मानवतावाद और भारत का विकास

नेहरू के युग (1950-64) में लागू विकास नीति की आलोचना राजनीति में ही नहीं हुई है बल्कि कुछ अर्थशास्त्री भी देश के प्रदर्शन का आकलन करते समय उसकी आलोचना करते हैं। नेहरू के युग की 4 फीसदी वृद्धि दर और 1980 के बाद की 6 फीसदी वृद्धि दर के बीच का बड़ा अंतर अक्सर याद दिलाया जाता है। मगर ध्यान रखें कि नेहरू के दौर में 4 फीसदी वृद्धि दर उस अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा ढांचागत बदलाव थी, जो उससे पहले के 100 साल में 1 फीसदी से भी कम रफ्तार से बढ़ी थी। विश्व बैंक के पास नेहरू के अंतिम सालों (1961-64) के तुलना करने लायक आंकड़े मौजूद हैं, जिनके मुताबिक उन सालों में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर 5 फीसदी थी। उस दौरान निम्न और मध्यम आय वाले देशों की औसत वृद्धि दर 4.3 फीसदी और दुनिया भर की औसत वृद्धि दर 5.2 फीसदी थी।

वृद्धि में असली गिरावट नेहरू युग के बाद आई जब 1965-66 के भीषण खाद्य संकट ने विकास में रुकावट डाली। उसके बाद कांग्रेस में विभाजन, आपातकाल थोपे जाने के राजनीतिक असर और जनता पार्टी की विजय तथा पतन के कारण आई राजनीतिक अस्थिरता ने विकास के प्रयासों को और भी बेअसर किया। यहां ध्यान रहे कि 1962 में चीन के साथ युद्ध और 1965 तथा 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्धों ने भी विकास को पटरी से उतारे रखा। मगर 1980-81 के बाद औसत वृद्धि दर 6 फीसदी पर बनी रही।

नेहरू के जमाने की वृद्धि दर और 1980-81 से छह फीसदी की औसत वृद्धि दर के बीच अंतर की वजह अक्सर नेहरू के दौर की एक खास नीति को बताया जाता है। कहते हैं कि नेहरू ने उन उद्योगों पर जोर दिया, जो आयात होने वाले माल को देश में ही बनाते। इस वजह से श्रम के अधिक इस्तेमाल से बनने वाले माल के निर्यात के मौकों का फायदा नहीं उठाया जा सका, जबकि उससे विनिर्माण में रोजगार तेजी से बढ़ता। 1951 में मिल में बने कपड़े के निर्यात की सबसे अधिक संभावना थी और हथकरघा बुनकरों को संरक्षण देने का राजनीतिक आंदोलन उसकी राह में बाधा बन गया। ध्यान रहे कि आजादी के पहले के कॉरपोरेट औद्योगिक विकास की दिशा काफी हद तक आयात हो रहे माल का उत्पादन करने की ओर थी और उससे व्यापार संरक्षण की मांग उठी। यह प्रवृत्ति विकास पर हमारे कंपनी जगत के नजरिये से कभी खत्म नहीं हुई है।

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