जीवन्मुक्त महात्मा निजानंद स्वामी का एक शिष्य उनकी आज्ञाओं का पूरा पालन करता हुआ एकांत में भजन करता था। एकांतवास के कारण उसकी चित्तवृत्तियों का बिखराव कम हुआ और उसमें कुछ प्रभाव, आकर्षण पैदा हुआ। गुरुपूनम के दिन वह अपने गुरुदेव के श्रीचरणों में सिर झुकाने को गया तो और गुरुभाई उसको देखकर बड़े मान के शब्दों के साथ उसका स्वागत करने लगे।
किसीने कहा : ‘‘तुम्हें देखकर हमारी आँखें चाहती हैं कि बार-बार तुम्हें देखें। तुम्हारे में क्या अद्भुत आकर्षण है !"
दूसरे गुरुभाई ने कहा : "तुम मानो प्रेम की मूर्ति बन गये हो।”
तीसरे ने कहा : ‘‘तुम्हारे वचन सुनकर हमारे कान अघाते नहीं।"
चौथे ने कहा: "सचमुच! बुद्धिमान भी तुम ऐसे हो कि मानो बृहस्पति !"
गुरुदेव अपनी कुटिया में यह गपशप सुन रहे थे। बाहर आये और अपने उस खास प्यारे शिष्य को डाँटा : ‘‘चल रे पाखंडी पापी ! दुष्ट ! गुरुपूनम को मुँह दिखाने को आया ! मेरे को मुँह मत दिखा, भाग जा यहाँ से, निकल !”
Bu hikaye Rishi Prasad Hindi dergisinin January 2023 sayısından alınmıştır.
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