नागपुर में 1 दिसंबर को सर्दी की दोपहर थी. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत मंच पर आए और भारतीय (हिंदू) दंपतियों से कम से कम तीन बच्चे पैदा करने का देशभक्ति का कर्तव्य निभाने का आह्वान किया. अपने हिंदुत्व विचारों और सांस्कृतिक सलाहों के लिए चर्चित आरएसएस प्रमुख ने एक गंभीर तस्वीर पेश की, “जनसंख्या विज्ञान के अनुसार, जब वृद्धि दर 2.1 से कम होती है, तो समाज का अपने आप क्षय होने लगता है, कोई दूसरा उसे नष्ट नहीं करता." वे कुल प्रजनन दर (टीएफआर) की चर्चा कर रहे थे, जो जनसंख्या बदलाव का बेंचमार्क है, टीएफआर 2. 1 हो, तो जनसंख्या को स्थिर स्तर पर बनाए रखने के लिए हर महिला को औसतन दो बच्चे पैदा करने होंगे. देश में अब टीएफआर 2 पर है, तो आरएसएस प्रमुख को लगा कि जनसंख्या में गिरावट रोकनी होगी, इसलिए परिवार बड़ा बनाने का यह आह्वान है.
देश अब दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला है, इसलिए यह डर फैलाने की कोशिश जैसा लग सकता है. लेकिन आरएसएस प्रमुख की फिक्र कोई अनोखी नहीं है. दक्षिण में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने भी ऐसी ही चिंताएं जताई हैं, और घटती आबादी के संभावित परिणामों पर परेशानी जताया है. पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडु तो 'एक कदम आगे हैं. वे परिवार बड़ा करने के लिए विधायी प्रोत्साहनों पर विचार कर रहे हैं.
इन नेताओं की फिक्र में कुछ खोने का डर साझा है, अलबत्ता उसके दायरे अलगअलग हैं. स्टालिन और नायडु को राजनैतिक प्रतिनिधित्व और राज्य के हिस्से की रकम के नुक्सान का डर सता रहा है. 2026 में संसदीय क्षेत्रों का परिसीमन तय है, जिसमें जनसंख्या के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों का गठन नए हिसाब से होगा. इस मायने में राजनैतिक ताकत का पलड़ा उच्च प्रजनन दर वाले उत्तरी राज्यों की ओर और अधिक झुक सकता है. दक्षिणी राज्य कभी जनसंख्या नियंत्रण में कामयाबी के लिए वाहवाही के हकदार थे, पर अब उन्हें लोकसभा में संख्या बल खोने की चिंता सता रही है. जनसंख्या के पैमाने से जुड़ा राजस्व साझा करने का फॉर्मूला भी उनकी हिस्सेदारी घटा सकता है. सो, उन्हें लगता है। कि वे उपलब्धियों के लिए 'दंडित' होंगे.
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