हाल ही में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की गतिविधियों में सरकारी कर्मचारियों के भाग लेने पर लगी 58 साल पुरानी बंदिश को कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के एक आदेश की मार्फत हटा लिया। आदेश आने के कोई एक पखवाड़े बाद यह सार्वजनिक विमर्श का मुद्दा बना, तो अलग-अलग दलीलें सामने आ रही हैं। इन सभी में फैसले का तात्कालिक संदर्भ संघ और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच उपजे हालिया तनावों और बयानबाजियों को बताया जा रहा है।
गौरतलब है कि फैसले की पृष्ठभूमि मध्य प्रदेश हाइकोर्ट में एक सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी की याचिका है, जिसने प्रतिबंध हटाने की मांग की थी। पहली सुनवाई पिछले साल सितंबर में हुई थी। छह सुनवाइयों के बाद 10 जुलाई को केंद्र सरकार ने एक हलफनामा दाखिल कर अदालत को बताया कि उसने प्रतिबंधित संगठनों में से संघ का नाम हटाने का फैसला ले लिया है। छह दशक पुराने इस प्रतिबंध को लेकर कितनी गफलत थी, इसका पता इससे चलता है कि कोर्ट के बार-बार आदेश के बावजूद केंद्र सरकार ने कोई जवाब दाखिल नहीं किया। कम से कम पांच तारीखें ऐसी रहीं जब अदालत ने केंद्र सरकार के कर्मचारियों के आरएसएस से जुड़ने पर लगे प्रतिबंध से संबंधित सर्कुलर और ऑफिस मेमोरेंडम का आधार जानने की कोशिश की, लेकिन सरकार ने जवाब नहीं दिया। तब अदालत ने वरिष्ठ अधिकारियों को तलब किया।
फैसले की विडंबना
जब पहली बार संघ के प्रचारक अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, तब भी यह प्रतिबंध जारी रहा। फिर दूसरे प्रचारक नरेंद्र मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने तक यही स्थिति रही और सार्वजनिक दायरे में इस पर कहीं कोई चर्चा नहीं हुई। इसके बावजूद कथित तौर पर 2023 के अंत तक संघ की करीब एक लाख शाखाएं देश भर में चलती रहीं और सरकारी कर्मचारी उनमें जाते रहे। इतना ही नहीं, मंत्रालयों से लेकर विभागों और उच्च शिक्षा संस्थानों में नियुक्तियों के पीछे संघ की भूमिका की चर्चा होती रही।
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