मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. देश की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए संविधान में 3 स्तंभों को जिम्मेदारी दी गई थी. इन में पहला व्यवस्थापिका यानी सांसद और विधायक जो देश की जरूरत के हिसाब से कानून और मूलभूत ढांचा बनाते हैं. दूसरा कार्यपालिका जिस में औफिसर व्यवस्था के हिसाब से काम करते हैं. तीसरा न्यायपालिका जो न्याय व्यवस्था को बनाए रखने का काम करती है.
मीडिया को चौथा स्तंभ कहा गया क्योंकि जनता मानती थी कि मीडिया ही बाकी तीनों स्तंभों पर नजर रखेगी.
मीडिया की व्यवस्था को चलाने के लिए 2 माध्यम थे. एक जनता द्वारा मीडिया का भुगतान कर या व्यावसायिक विज्ञापनों के सहारे मीडिया को सहयोग करना. दूसरा, सरकार द्वारा विज्ञापन देना. विज्ञापन वह होता है जिसे सरकार बताती है, खबर वह होती है जिसे सरकार छिपाती है. सरकारी बदलते दौर में मीडिया जनता को खबर नहीं बता रही, केवल विज्ञापन दिखा रही है. इस से चुनाव के समय जनता को सरकार के कामों के बारे में सही जानकारी नहीं मिल पाती और वह सही पार्टी व प्रत्याशी का चुनाव नहीं कर पाती है.
इस का लाभ मौजूदा सरकार और मीडिया दोनों को हो रहा है पर नुकसान जनता को हो रहा है. उसे यह पता ही नहीं चल पा रहा कि सरकार और मीडिया आपस में मिल कर उसे किस तरह से बरगला रही हैं. सत्ताधारी पार्टी अपना सच बाहर नहीं आने दे रही, जिस से चुनाव के समय जनता अपना सही फैसला नहीं ले पा रही. भारत में मीडिया का बड़ा आधारभूत ढांचा है. इस के बाद भी वह सरकार के कदमों में पड़ी दिखती है.
हाथी सा शरीर, चूहे सा दिल
भारत में कुल अखबार और पत्रिकाओं की संख्या 99 हजार 660 है. पत्रिकाओं की संख्या 85 हजार 899 और अखबारों की संख्या 13 हजार 761 है. इन में से सब से अधिक उत्तर प्रदेश में 15 हजार 209 और दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र में 13 हजार 375 हैं. देशभर में करीब 800 टीवी चैनल हैं. इन में आधे से अधिक खबरिया चैनल हैं. इतना बड़ा आधारभूत ढांचा होने के बाद भी मीडिया ताकतवर नहीं है. वह पिछलग्गू बनी हुई है.
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