अश्लीलता और फूहड़पन, ये 2 शब्द 'भोजपुरी सिनेमा' से ऐसे चिपक गए हैं या चिपका दिए गए हैं जैसे यही भोजपुरी एंटरटेनमैंट की पहचान हो. इस अश्लीलता को परोसने में बेशक भोजपुरी सिनेमाधारियों ने अपना योगदान दिया पर कहीं न कहीं भोजपुरी सिनेमा को ले कर यह मानसिकता आम बनाई गई. फूहड़ क्या है और अश्लील क्या है, यह एक आम राय हो सकती है, मगर इन शब्दों का भोजपुरी सिनेमा के लिए ही प्रयोग किया जाना किसी षड्यंत्र से कम नहीं और यह षड्यंत्र उन गरीब लोगों को हेय दृष्टि से देखने का है जो रोज खाताकमाता मजदूर तबका है.
भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत वैसे तो 1963 में विश्वनाथ शाहबादी की आई फिल्म 'गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो' से हुई, जिसे तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने नासिर हुसैन से सिफारिश कर बनवाई, बावजूद इस के, अभी तक भोजपुरी सिनेमा वह मुकाम हासिल नहीं कर पाया जो देशभर के कई रीजनल सिनेमा कर चुके हैं. इसे समझने के लिए उस मानसिकता को समझना जरूरी है जो हर तरफ छाई हुई है और जो सुनिश्चित करना चाहती है कि यह सिनेमा कभी आगे बढ़े ही न.
अयोध्या में हर साल की तरह इस साल की शुरुआत में भी चर्चित 'सरस सलिल भोजपुरी सिने अवार्ड' का आयोजन बड़ी धूमधाम से संपन्न हुआ. अवार्ड समारोह में लोगों की भारीभरकम भीड़ ऐसी थी मानो भोजपुरी सिनेमा के प्रति उन की दीवानगी कड़कड़ाती ठंड से भी नहीं थमेगी. दिल्ली प्रैस की पत्रिका सरस सलिल की तरफ से आयोजित किए गए इस अवार्ड नाइट में कई चर्चित भोजपुरी कलाकारों, फिल्म निर्देशकों, निर्माताओं ने भाग लिया, जिन्हें सरस सलिल अवार्ड देकर सम्मानित किया गया. इस में बैस्ट ऐक्टर का अवार्ड प्रदीप पांडे 'चिंटू' को मिला तो बैस्ट फीमेल ऐक्ट्रैस वैब सीरीज अवार्ड अनारा गुप्ता को मिला.
सरस सलिल हर साल भोजपुरी सिने अवार्ड फंक्शन का आयोजन करता है. यह एक शानदार पहल है कि भोजपुरी सिनेमा की जो इमेज देशभर में बनाई जा रही है या बन रही है उस में सुधार हो सके और भोजपुरी संस्कृति, वहां के लोकगायकों, कलाकारों को बेहतर मंच मिल सके.
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