रामचरितमानस की आड़ में देश में बीते दिनों एक बवंडर मचा. उसे राजा जनक के दरबार में अष्टावक्र और बंदी (वंदिनी) की बहस सरीखा इस लिहाज से कहा जा सकता है कि उस दौर में भी शास्त्रार्थ एक खास मकसद से ही किए जाते थे कि वर्णव्यवस्था का नवीनीकरण होता रहे. आज फिर ब्राह्मणवादी सोच और शूद्र आमनेसामने हैं. दोनों ही रामचरितमानस को ले कर वाक्युद्ध कर रहे हैं. आज के अष्टावक्र कह रहे हैं कि इस में जो कुछ लिखा है वह आपत्तिजनक और शूद्रों (व सवर्ण औरतों) को अपमानित करने वाला है, इसलिए या तो रामचरितमानस के कुछ अंश हटाए जाएं या फिर इस ग्रंथ को प्रतिबंधित किया जाए.
मुमकिन यह भी है कि यह विवाद सोचीसमझी साजिश यानी पूर्व नियोजित षड्यंत्र हो जिस का मकसद पौराणिक सवर्ण हिंदू राष्ट्र की स्थापना है. सो, जरूरी है कि मानस को आज फिर रामचरित के विवादित पहलुओं को उभार कर संपूर्ण हिंदू समाज को शीशा दिखाया जाए.
मंशा असल में यह देखने की है कि पिछले दशकों के दौरान कितने दलित, पिछड़ों, आदिवासियों और सवर्ण औरतों की हिम्मत टूटी है कि जो वे बराबरी, शिक्षा, तर्क, विज्ञान के तथ्यों को जान कर भी धर्मग्रंथों में निर्देशित सामाजिक व्यवस्था को ज्यों का त्यों स्वीकारने को तैयार हैं और अगर उन में से कुछ के मन में विरोध या एतराज जताने का माद्दा बचा है तो कौन सा विकल्प बेहतर है- इंतजार करने का या फिर रामचरितमानस जैसे ग्रंथों में संशोधनों की मांग मान लेने का?
शुरुआत बिहार के शिक्षा मंत्री प्रोफैसर चंद्रशेखर ने 11 जनवरी को की थी. उन्होंने नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में कहा था कि, मनुस्मृति में समाज की 85 फीसदी आबादी वाले बड़े तबके के खिलाफ गालियां दी गईं व रामचरितमानस के उत्तरकांड में लिखा है कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करने के बाद सांप की तरह जहरीले हो जाते हैं. उन्होंने कहा कि ये नफरत फैलाने वाले ग्रंथ हैं. उन का आरोप था कि एक युग में मनुस्मृति, दूसरे युग में रामचरितमानस तीसरे युग में गुरु गोलवलकर का 'बंच औफ थौट', ये सभी देश व समाज में नफरत बांटते रहे हैं. वे जोर दे कर यह कहते रहे कि नफरत कभी देश को महान नहीं बनाएगी, देश को केवल मोहब्बत ही महान बनाएगी.
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