विदेश जा कर व्यापार व नौकरी कर धन कमाना सदियों पुरानी बात है. पिछले 2-3 दशकों से कंप्यूटर बूम के कारण भारतीय प्रवासियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई है जो दुनिया के दूसरों देशों, खासतौर पर अमेरिका में गए हैं. मध्यवर्ग के हजारों युवक व युवतियां तकनीकी मजदूरों के रूप में अमेरिका व यूरोपीय देशों में जा बसे हैं.
आज करीब 45 लाख भारतीय मूल के लोग अमेरिका में हैं जिन में कुछ की कंपनियां जानीमानी हैं. काफी डाक्टर हैं जो सिलिकौन वैली में भरे हैं. भारतीय मूल के न्यूयॉर्क में 7 लाख लोग हैं.
सवाल यह कि क्या धन और भौतिक सुखों की लालसा में अमेरिका गए युवकयुवतियां वहां वाकई संतुष्ट हैं ? किसी विदेशी कंपनी में जौब करने का वीजा मिलते ही युवा खुशी से फूले नहीं समाते. वे चटपट बड़े सूटकेसों में अपना सामान सहेज कर गैर धरती पर जा पहुंचते हैं. मध्यवर्गीय परिवार के बच्चे अपने मातापिता से घर बनवाने का कार खरीदने या फिर बहन की शादी के लिए पूंजी इकट्ठा करने का वादा कर वहां जाते हैं. उन्हें वहां कड़वी सचाइयों का सामना करना पड़ता है.
पढ़ाई के लिए भारतीयों की स्कौलरशिप या मांबाप से मिलने वाला पैसा बहुत ही कम होता है. उन्हें अपने दालचावल की फिक्र में हर समय पार्टटाइम काम की तलाश रहती है.
प्रवासियों को आसमान छूते फ्लैट किराए के रूप में एक बैडरूम वाले फ्लेट का भारी किराया देना होता है. जो कुल आय का आधा तक भी हो सकता है. न्यूयौर्क, न्यूजर्सी, सिएटल, सैनफ्रांसिस्को के आसपास का बे एरिया जैसे क्यूपर्टिनो, सांता क्लारा, सैनहोजे, फ्रीमांट, मिलपिटास जैसी जगहों में, जहां कंप्यूटर कंपनियों का जमावड़ा है, रिहायशी फ्लैटों का किराया भी सब से ज्यादा है. कारण, यहीं पर अधिकांश प्रवासियों का डेरा है.
एक बैडरूम वाले फ्लेट में अपनी अटैची खोलने पर लगता है कि वह अपनी जरूरत का पूरा सामान भारत से नहीं ला पाया है और फिर शुरू होता है दौर छोटीमोटी खरीदारी का.
घर से बाहर निकलते ही कार की जरूरत महसूस होती है क्योंकि कार तो अमेरिका में पांव है. विशाल भूखंड वाले विशाल देश में पंइयांपइयां भला कहां तक जाया जा सकता है. भारत तो है नहीं कि स्कूटर, रिकशा को 50-100 रुपए दिए और कहीं भी चले गए. इसलिए पहली जरूरत कार की खरीदारी की सोच शुरू हो जाती है.
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