हमारी नानी-दादी के दौर में लकड़ी वाले चूल्हों पर खाना बना करता था। तब जंगल बहुत थे और आज की तरह प्रकृति के खजाने कम नहीं थे। मगर लकड़ी बटोर कर लाना या मंगाना एक बड़े झंझट का काम था। अंगीठी की जगह भी घरों में थी, जिसमें लकड़ी का बुरादा भरा जाता था। फिर धीरे-धीरे भारतीय मांओं की किचन में गैस के चूल्हे आए। जैसा कि शुरुआत में हर नयी चीज के में साथ होता है, बड़े सारे मिथक थे गैस पर खाना बनाने के इर्दगिर्द। बड़े-बुजुर्गों ने कुकिंग गैस को ले कर खासे सवाल खड़े किए, सेहत को ले कर लोग आशंकित हुए, लेकिन सचाई यह थी कि कुकिंग गैस के आने से महिलाओं की जिंदगी बहुत आसान हो गयी थी। चूल्हे-अंगीठी के धुएं से हरदम उनकी आंखें जलती नहीं थीं। उनका काम आसान हो गया और समय काफी बचने लगा। किचन भी साफ-सुथरी रहती। पिछले 35-40 वर्षों में भारतीय रसोई बहुत मॉडर्न होती गयी हैं। मॉड्यूलर किचन से ले कर चॉपिंग, ग्रिलिंग, मिक्सिंग, ग्राइंडिंग तक ढेर सारे विकल्प मौजूद हैं। सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की एंट्री के साथ ही उनकी रसोई में भी तमाम अत्याधुनिक उपकरण, यूटेंसिल्स और कुकिंग रेंज की एंट्री भी होती चली गयी। इसी तरह अस्सीनब्बे के दशक में पॉपुलर हुआ माइक्रोवेव अवन, जिसने महिलाओं को तो सहूलियत दी ही, पुरुषों को भी किचन के कार्यों में मदद करने के लिए प्रेरित किया। यानी एक तरह से माइक्रोवेव अवन ने किचन में क्रांति ला दी।
गलती से हुआ आविष्कार
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