बचपन बनाम हम
Aha Zindagi|November 2024
होना तो चाहिए था बचपन और हम और अच्छा होता जब होता बचपन के साथ हम । लेकिन हो गया बचपन बनाम हम ! अब बच्चे अपने हिसाब से जीना चाहते हैं और बड़े उन्हें अपने हिसाब से जीना सिखा देना चाहते हैं। इस चक्कर में बचपन खो गया है और शायद बड़प्पन भी। तो, 14 नवंबर, बाल दिवस के अवसर पर क्या यह बेहतर नहीं होगा कि बचपन की सुहानी यादों और मीठी-मीठी बातों के बजाय वास्तविकता से दो-दो हाथ किए जाएं और एक व्यावहारिक हल निकाला जाए?
शिवनारायण गौर
बचपन बनाम हम

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो, बचपन का सावन, वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी...! सुदर्शन फ़ाकिर की लिखी और जगजीत सिंह की गाई यह ग़ज़ल बचपन का आकर्षक चित्रण करती है। शायद इसलिए बड़ों को लगता है कि उन्होंने जो बचपन जिया है वह इस पीढ़ी के बच्चे नहीं जी पा रहे हैं। न तो उन्हें ख़ूब सारी कहानियां सुनाने वाली वो बुढ़िया नानी मयस्सर हो रही है और न ही तितली पकड़ने, चिड़ियों के साथ खेलने का मौक़ा मिल पा रहा है। पर ये धारणा तो एकतरफ़ा है। बात इससे पलट भी हो सकती है। शायद बड़ों को वो मौक़े ही नहीं मिले हों जो आज बच्चों को मिल रहे हैं। बात तो तब बनती जब आज जैसे मौक़े भी उनके पास होते और तब भी वे बचपन के सावन और काग़ज़ की कश्ती के साथ रहना पसंद करते!

निस्संदेह, बचपन जीवन का एक बहुत ही महत्वपूर्ण पड़ाव है। यही वह शुरुआती पाठशाला है जहां जीवन की इबारत लिखे जाने का मौक़ा होता है। बच्चे बचपन को केवल जीते नहीं, बल्कि उसे जीते हुए युवावस्था और प्रौढ़ावस्था दोनों की ही दिशा तय कर रहे होते हैं। यही वह उम्र है जिसमें बच्चों का संज्ञानात्मक विकास हो रहा होता है। इसलिए ही पहले अनियोजित और फिर बाद में सुनियोजित तरीके से बच्चों को शिक्षा से जोड़ने के प्रयास किए गए। तमाम तरह की नीतियां बच्चों को ध्यान में रखकर बनाई गईं। चाहे फिर वह मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा की बात हो या फिर बाल श्रम को रोकने वाली नीतियां और क़ानून हों।

अब ज़माना बदल गया है...

Diese Geschichte stammt aus der November 2024-Ausgabe von Aha Zindagi.

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