मुरादाबाद जिला कचहरी से दो किलोमीटर दूर, दिल्ली- रामपुर रोड के बगल, मोहल्ला गलशहीद गदर का गवाह रहा है. मुरादाबाद के नवाब मज्जू खां और उनके सैनिकों ने 1857 के गदर के दौरान अंग्रेजी पलटनों को नैनीताल तक खदेड़ दिया था. सरकारी खजाने पर कब्जा हो गया था. इसी जांबाजी के चलते बहादुर शाह जफर ने 8 जून, 1857 को मज्जू खां को मुरादाबाद का हाकिम घोषित किया था. कुछ समय बाद अंग्रेज वापस आए. मज्जू खां की सेना ने उनका मुकाबला किया पर अंग्रेजों की मजबूत सेना से पार न पा सके. ईदगाह के पास मौजूद एक कब्रिस्तान में मज्जू खां का सिर कलम करके इमली के पेड़ पर लटका दिया गया. इसके बाद से इस कब्रिस्तान के आसपास का इलाका गलशहीद के नाम से जाना जाने लगा. करीब सवा सौ साल बाद 1980 में मुरादाबाद का यही गलशहीद इलाका यूपी के बड़े दंगों में से एक का गवाह बना.
मुरादाबाद दंगों का जिक्र आते ही गलशहीद कोतवाली के पीछे रहने वाली साजिदा बेगम (75) बेचैन हो उठती हैं. कांपते हाथों से आंसू पोछते हुए वे 13 अगस्त, 1980 की उस मनहूस घड़ी को कोसती हैं जब पुलिस वालों के कहने पर उन्होंने घर का दरवाजा खोल दिया था. साजिदा बताती हैं, "पुलिस वाले मेरे शौहर (सज्जान हुसैन), ससुर, देवर और नौकर को पकड़कर ले गए. मुझे यही बताते रहे वे लोग जेल में हैं लेकिन आज दिन तक उनका कोई पता नहीं चल पाया है." दंगे थमने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी साजिदा से मिलने आई थीं. उन्होने वित्तीय मदद की पेशकश भी की थी पर साजिदा ने साफ मना कर दिया. उस वक्त साजिदा की शादी को महज 13 साल हुए थे. बच्चे बहुत छोटे थे. पति की तलाश में वे दर-दर भटकीं लेकिन उनका कहीं कोई पता न चला. हालात ऐसे बने कि भीख मांगने तक की नौबत आ गई. घरों में झाड़ू-पोंछा करके उन्होंने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया. इसी दौरान साजिदा अस्थमा जैसी गंभीर बीमारी की जकड़ में आ गईं. आंखों में जाला पड़ गया पर वे आज भी शौहर की राह तक रही हैं.
Diese Geschichte stammt aus der June 14, 2023-Ausgabe von India Today Hindi.
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