राजनीति में किसी मुद्दे को सही समय पर भुनाना ही सबसे ज्यादा मायने रखता है. 26 नवंबर को जब देश अपना 75वां संविधान दिवस मना रहा था तब बिहार में नेता विपक्ष तेजस्वी यादव ने विधानसभा में काफी आक्रामक तेवर अपनाते हुए सियासी तौर पर एक बेहद संवेदनशील मुद्दे को उठाने का फैसला किया. उन्होंने बिहार में सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण सीमा को बढ़ाकर 85 फीसद करने के लिए एक नया विधेयक लाने की मांग उठाई. जाहिरा तौर पर उनकी यह मांग नीतिगत मुद्दे से कहीं ज्यादा सियासी रणनीति का हिस्सा नजर आती है. खासकर ऐसे समय में जब तीन दिन पहले ही आए अहम उपचुनाव नतीजों में तेजस्वी यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को तीन सीटों पर हार का सामना करना पड़ा. यही नहीं, भारतीय राष्ट्रीय विकासशील समावेशी गठबंधन (इंडिया) - जिसमें राजद एक प्रमुख घटक है - राज्य में चार में से एक भी सीट पर सफलता हासिल नहीं कर पाया.
अपने पिता और राजद के संरक्षक लालू प्रसाद यादव की राजनैतिक विरासत का हिस्सा रहे इस मुद्दे के बहाने तेजस्वी बिहार में संख्याबल के लिहाज से बेहद अहम माने जाने वाले अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) समूहों तक पैठ बढ़ाने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं. उपमुख्यमंत्री के तौर पर अपने कार्यकाल का जिक्र करते हुए उन्होंने विधानसभा को याद दिलाया, "आपको याद होगा 9 नवंबर, 2023 को मेरे जन्मदिन के मौके पर इस विधानसभा ने आरक्षण को बढ़ाकर 65 फीसद करने का प्रस्ताव पारित किया था." वह प्रस्ताव जाति गणना के आधार पर आया था, जिसमें यह बात सामने आई थी कि राज्य की कुल आबादी में ओबीसी की हिस्सेदारी 63 फीसद है. हालांकि, राजद की भागीदारी वाली नीतीश कुमार सरकार ने 2023 में अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और ओबीसी के लिए संयुक्त कोटा बढ़ाकर 65 फीसद कर दिया. लेकिन 2023 के उस कानून को जून 2024 में पटना हाइकोर्ट ने रद्द कर दिया और उसके महीने भर बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी उस फैसले को पलटने से इनकार कर दिया. अब कोटा सीमा और बढ़ाने की मांग के साथ तेजस्वी ने एक विवादास्पद मुद्दे को फिर हवा दे दी है जिसकी गूंज पिछले कुछ दशकों से घटती दिख रही थी.
Diese Geschichte stammt aus der December 18, 2024-Ausgabe von India Today Hindi.
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