मेरी दोस्ती मेरी फटकार
Aha Zindagi|October 2024
कहावत है कि जब बाप का जूता बेटे के पैर में आने लगे तो उसे मित्र मान लेना चाहिए। आज के दौर में भी अभिभावकों को किशोरवय संतानों के साथ दोस्ती कर लेने की सलाह दी जाती है। लेकिन क्या बच्चों का दोस्त बन जाना ही पर्याप्त है ? क्या सख़्ती से बात बिगड़ ही जाएगी? कब दोस्ताना रहना है और कब कठोर होना है? सवाल कई हैं और जवाब भी कोई एक नहीं है।
अमित डागर
मेरी दोस्ती मेरी फटकार

शिक्षा विभाग में कार्यरत संदीप अपने 17 वर्षीय बेटे के व्यवहार को लेकर परेशान थे। मैंने पूछा कि उनका अपने बेटे के साथ रिश्ता कैसा है? मैं कुछ और कह पाता इससे पहले ही संदीप बोल पड़े कि वो बहुत खुले दिमाग़ के पिता हैं। उनका अपने पुत्र के साथ दोस्ती का रिश्ता है। उन्होंने बेटे को पूरी आज़ादी दे रखी है। वह उनसे अपनी सारी बातें भी शेयर करता है। और फिर बातों-बातों में उन्होंने बेटे के बारे में एक किस्सा सुनाया। कुछ दिनों से उनका बेटा स्कूल का होमवर्क नहीं करके जा रहा था। इतवार का दिन था। उन्होंने बेटे को बुलाकर कहा कि जब तक तुम आज तक का सारा होमवर्क पूरा नहीं कर लेते तब तक रात को सोने नहीं जाना। बेटे ने एक-दो दिन का समय चाहा, लेकिन संदीप ने सख़्ती से मना कर दिया।

अब वे दुविधा के शिकार हैं। संदीप अकेले नहीं हैं। उन जैसे लाखों किशोरवय बच्चों के अभिभावक एक तरफ़ तो समय और माहौल के हिसाब से या कहीं देख, सुन, पढ़कर अपने बच्चों के दोस्त बनना चाहते हैं, दूसरी तरफ़, वे पारंपरिक पालक भी ब रहना चाहते हैं जहां बच्चों पर सख़्ती दिखा सकें, चाहते हैं कि बच्चे चुपचाप उनके आदेशों का पालन करें, आदि। यह दुविधा वर्तमान पीढ़ी के अभिभावकों के लिए बड़ी चुनौती बनी हुई है। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि इसका कैसे और क्या समाधान करें। इनमें से अधिकतर को तो संदीप की तरह शायद पता भी नहीं होगा कि उनकी पैरैंटिंग में विरोधाभास है। जैसे संदीप कहते हैं, ‘अभिभावक होने के नाते इतना हक़ तो हमें अपने बच्चों पर होना ही चाहिए कि ज़रूरत पड़ने पर हम उनके साथ कठोर हो सकें।'

बच्चों से दोस्ती में हर्ज़ ही क्या है!

लेकिन यदि आप अपने बच्चों के दोस्त हैं तो क्या ऐसा करना सही होगा? एक एडवेंचर स्पोर्ट्स कंपनी के मालिक सत्यवान सांगवान की बेटी ग्रैजुएशन कर रही है जबकि बेटा दसवीं कक्षा में पढ़ता है। वे इस दुविधा से पूरी तरह बाहर निकल चुके हैं और अपने बच्चों के साथ दोस्त की भूमिका में सहज हैं। सत्यवान कहते हैं, ‘यदि आप बच्चों के दोस्त हैं और बने रहना चाहते हैं तो आपको यही भूमिका निभानी होगी। एक दोस्त की तरह ही न सिर्फ़ बात करनी होगी, बल्कि व्यवहार भी करना होगा। आप अपना रोल बार-बार स्विच नहीं कर सकते। इससे बच्चे भी नहीं समझ पाएंगे कि उनके अभिभावक का असली रूप कौन-सा है।'

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