यह उनके लिए किताब नहीं, एक मिशन है टेक्नोलॉजी के जरिए मनुष्य की सोच पर कब्जा करने की बड़ी ताकतों की युक्तियों के प्रति उसे सजग बनाने का. विपश्यना ध्यान के अपने सालाना उपक्रम के लिए भारत आए 48 वर्षीय इस मानवतावादी ने इंडिया टुडे और दी लल्लनटॉप के संपादक सौरभ द्विवेदी से मुंबई के ताज होटल में बात की. प्रमुख अंश:
प्रःसर, जुड़ने के लिए आपका बहुत धन्यवाद. (आपकी ताजा किताब) नेक्सस एक शानदार रचना है. बातचीत में हम आपकी दूसरी किताबों सैपियंस, होमो डेयस और 21 लेसंस फॉर द ट्वेंटीफर्स्ट सेंचुरी का भी जिक्र करते रहेंगे. पर सबसे पहले मैं आपका इंडिया कनेक्शन समझना चाहूंगा क्योंकि आपकी तीसरी किताब में विपश्यना का जिक्र है.
युवाल नोआ हरारी: मैं हर साल विपश्यना कोर्स करने आता हूं. 24 साल पहले एस.एन. गोयनका से यह विद्या सीखी थी. उस समय मैं ऑक्सफोर्ड (इंग्लैंड) में हिस्ट्री में पीएचडी कर रहा था और दुनिया और जीवन को किताबों के जरिए समझने की कोशिश कर रहा था लेकिन मुझे गहरे जवाब नहीं मिल रहे थे. एक दोस्त साल भर से कहता आ रहा था कि विपश्यना ट्राइ करो. मैंने सोचा ये सब बकवास है, कोई अंधविश्वास है. कोई रहस्यमयी विद्या ! मैं विज्ञान का आदमी, इसमें यकीन नहीं करता. लेकिन उसने मुझे मना लिया. और गया तो पाया कि यह तो अद्भुत है. कोई रहस्यवाद नहीं. नितांत वैज्ञानिक चीज हर पल सिर्फ सच को देखना. आप सिर्फ किताबें पढ़कर अपने मन को नहीं समझ सकते. ( वहां बताया गया ) सांस को देखिए, अंदर आती, बाहर जाती सांस लगा कि ये सबसे सरल अभ्यास है. पर कहने के लिए. मैं दस सेकंड से ज्यादा नहीं कर सका. दिमाग किसी फैंटेसी में या किसी पुरानी याद में चला जाता. यहीं से समझना शुरू किया कि मन कैसे काम करता है. तभी से विपश्यना कर रहा हूं. कोविड के दौरान संभव नहीं हो पाया. पर वैसे लगभग हर साल भारत आता हूं, 30 या फिर 60 दिनों का लंबा कोर्स करने, ताकि मन को और बेहतर ढंग से समझ सकूं.
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