सालाना दावोस सम्मेलन से पहले वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने इस साल एक रिपोर्ट जारी की जिसका सा नाम है ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट फॉर 2024 जिसमें आने वाले दशक में उन खतरों को गिनवाया गया है, जिसका सामना दुनिया भर के देश करने वाले हैं। खतरों की सूची में सबसे ऊपर फर्जी या विकृत सूचनाओं और गलत सूचनाओं को रखा गया है। यह बात स्वाभाविक लग सकती है, लेकिन अस्वाभाविक बात यह लग सकती है कि फर्जी या विकृत सूचनाओं और गलत सूचनाओं से सबसे ज्यादा जोखिम दुनिया में भारत को बताया गया है। भारत के करीब 97 करोड़ मतदाताओं के बीच मौजूद 82 करोड़ इंटरनेट प्रयोक्ताओं, इनके बीच वॉट्सएप जैसे विबादित मैसेंजर के 40 करोड़ ग्राहकों और सोशल मीडिया पर मौजूद करीब 47 करोड़ लोगों की व्यापक तस्वीर को ध्यान में रखें, तो बात समझ में आ सकती है। शायद इसलिए इस बार होने जा रहे लोकसभा चुनाव के समक्ष मौजूद चुनौतियों में केंद्रीय मुख्य चुनाव आयुक्त ने भी फेक न्यूज और डीपफेक को गिनवाया है। क्या सच है और क्या झूठ, इसका फर्क अगर देश की आधी आबादी को भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित तकनीकों के प्रयोग से भुलवाया जा सका, तो संसदीय लोकतंत्र केवल कागज तक सीमित रह जाएगा।
केवल दो महीने पहले की बात है जब बरसों पहले गुजर चुके दक्षिण के बड़े राजनेता करुणानिधि अचानक डीपफेक से जिंदा हो गए थे। जनवरी में तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक की एक शाखा ने एक सम्मेलन आयोजित किया था उसका एक वीडियो जारी हुआ उसमें एम करुणानिधि मौजूद थे। अपने ट्रेडमार्क काले चश्मे, सफेद शर्ट और पीले रंग की शॉल ओढ़कर वे अपने बेटे और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के नेतृत्व में राज्य के मौजूदा नेतृत्व की प्रशंसा कर रहे थे। जिसे नहीं पता कि करुणानिधि गुजर चुके हैं वह इसे सही मान लेता। जिन्हें पता है उनके ऊपर भी इस वीडियो की भावनात्मक अपील होती। इस तरह डीपफेक अपना काम कर जाता। इस तरह के वीडियो से मतदाताओं को आसानी से बरगलाया जा सकता है और चुनाव को प्रभावित किया जा सकता है।
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