ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। जैसे, दो बड़े महायुद्ध हुए, उस समय भी यह हुआ था। आज भी हम देख रहे हैं कि पूरी मानव प्रजाति हिंसा के ऐसे कगार पर आ चुकी है जहां सारे हथियार पांच बार इस पृथ्वी को जलाकर भी बचे रह जाएंगे। इतने हथियार जब आदमी बनाता है, तो इसके पीछे कोई न कोई गहरा दार्शनिक संकट होता है। समझ नहीं आता कि हम क्यों जी रहे हैं और किस परिस्थिति में जी रहे हैं। उससे पूरी चेतना और अवचेतन भी संकट में जा चुका है।
इसी संकट का दूसरा लक्षण हम यह देखते हैं कि पूरी मानव प्रजाति में खुदकशी की दर आज सबसे ऊंची है। अलग-अलग कारण हैं इसके, लेकिन जिस तरह की टेक्नोलॉजी के साथ मनुष्य काम कर रहा है उसकी अपनी गति और मानव प्रजाति के दिमाग की गति, दोनों का कहीं न कहीं जोड़ नहीं हो पा रहा है। इसका मतलब यह है कि इंसान ने ऐसी उत्पादन प्रणाली को खड़ा कर दिया है जिसकी गति को वह नियंत्रित नहीं कर पा रहा है। इससे मेरा आशय अंतरराष्ट्रीय पूंजी और सूचना तंत्र से है, लेकिन मैं पूंजी की ही बात पहले करता हूं क्योंकि वह ज्यादा प्रभावित करती है।
ये जो पूंजी है, उसका आवेग इतना तेज और संरचना इतनी जटिल है कि अर्थशास्त्री और बौद्धिक वर्ग भी इसे समझ नहीं पा रहा है। आज अलग किस्म का पूंजीवाद पनप रहा है। इसका सीधा असर उत्पादन तंत्र पर हुआ है। उसकी संरचना बदल रही है, तो समाज का ढांचा टूट रहा है। समाज बदल रहा है, तो शत्रु का स्वरूप भी बदल रहा है। खुद मानव जाति का ढांचा बदल रहा है। मनुष्य का विघटन हो रहा है। वह एलिनेशन में चला गया है। मराठी में इसे हम परात्मवाद बोलते हैं। परात्मकता की यह परिस्थिति बहुत अलग है। औद्योगिक पूंजीवाद में भी परात्मकता थी, लेकिन आज जो परात्मकता है वह मुझे अलग किस्म की दिख रही है। जैसे, आज इंसान को लगता है कि वह बहुत ग्लोबल है मगर ठीक उसी वक्त यह भी महसूस करता है कि वह बहुत सिकुड़ गया है। मतलब, वह ग्लोबल मनुष्य की तरह पेश आता है लेकिन अपनी जाति, बिरादरी, भाषा, धर्म के बारे में बहुत संकीर्ण होता है। यह विचित्र हैं। ऐसा मनुष्य देखता बहुत है, वह रोज स्क्रीन पर इतना ज्यादा देखता है कि अंत में पूछो क्या देखा तो बता ही नहीं पाता कि क्या देखा है।
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