जब राहुल पुरवार हार्वर्ड मेडिकल स्कूल से इम्यूनोथेरैपीजो सटीक और रोगी के हिसाब से ढली ओंकोलॉजी या कैंसर विज्ञान की शाखा है और कैंसर की कोशिकाओं की रोकथाम, नियंत्रण और उन्मूलन के लिए शरीर की अपनी इम्यून या प्रतिरक्षा प्रणाली का इस्तेमाल करती है - का प्रशिक्षण लेकर 2013 में भारत लौटे, तो उन्होंने यहां वह प्रोटोकॉल सिरे से नदारद पाया. वे कहते हैं, "मरीज के लिए केवल तीन विकल्प थे– कीमोथेरैपी, रेडिएशन या सर्जरी. ये कारगर न हुए तो कोई और विकल्प नहीं था – कैंसर आपकी मौत का परवाना था." वहीं अमेरिका, चीन, इज्राएल और यूरोप में इम्यूनोथेरैपी के रोमांचक परीक्षण उसे कैंसर के इलाज की संभावना से भरपूर टेक्नोलॉजी के तौर पर स्थापित कर रहे थे. वे यह भी कहते हैं, "भारत को इलाज की ज्यादा जरूरत थी क्योंकि देश में मामले ज्यादा थे, पर नए इलाज दूसरे देशों में पेश किए जा रहे थे."
पुरवार उसी साल प्रोफेसर के तौर पर आइआइटी बॉम्बे से जुड़ गए और संस्थान की लैब का इस्तेमाल इम्यूनोइंजीनियरिंग की एक टीम बनाने के लिए करने लगे. इस टीम ने अगले 3-4 साल देश की पहली स्वदेशी किमेरिक ऐंटीजन रिसेप्टर टी-सेल थेरैपी, सीडी-19 सीएआर-टी विकसित करने में बिताए. यह एक उपचार है जिसमें कैंसर की कोशिकाओं को खोजने और उन पर हमला करने के लिए इनसान की टी-कोशिकाओं (एक प्रकार की श्वेत रक्त या प्रतिरक्षा कोशिकाएं) को प्रयोगशाला में बदला जाता है. आज सीडी-19 सीएआर-टी को दो पेटेंट मिल चुके हैं और अमेरिका में कुछ निश्चित रक्त कैंसरों के इलाज की स्वीकृति भी. अब भारत में इसके दूसरे/तीसरे चरण के परीक्षणों की तैयारी चल रही है और उम्मीद है कि अगले साल की शुरुआत में भारत के अस्पतालों में इसे इलाज के लिए पेश किया जाए. पुरवार कहते हैं, "भारत में जीन और सेल थेरैपी के लिए यह रोमांचक समय है." वे अब इम्यूनोएसीटी के सीईओ हैं और उनकी यह कंपनी स्वीकृति मिलते ही यह नई थेरैपी विदेशों के मुकाबले बहुत कम खर्च पर भारत में मुहैया करेगी. वे कहते हैं, "निवेश और दिलचस्पी बहुत ज्यादा है और बहुत उत्साहवर्धक हैं. अमेरिका में 3-4 करोड़ रुपए के मुकाबले हम प्रति मरीज 30 लाख रुपए के खर्च का अनुमान लगा रहे हैं." इससे उन लोगों को नई जिंदगी मिलनी चाहिए जो कैंसर को जिंदगी का अंत समझते थे.
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