एक साल पहले चैटजीपीटी लॉन्च होने के बाद से एआइ लोगों के दिमाग पर छा गया है. सामाजिक प्रगति को आगे बढ़ाने में एआइ की क्षमता के बारे में जरूरत से ज्यादा उत्साह और इंसानी वजूद पर खतरा मंडराने जैसी विनाशकारी आशंकाओं के बीच इसे लेकर तरह-तरह की कहानियां चल रही हैं.
दोनों ही तरह की बातों में भ्रामक अतिरंजना है. ये न सिर्फ एआइ के मौजूदा नुक्सान से से ध्यान भटकाती हैं, बल्कि सार्वजनिक हित में एआइ को विकसित करने के लिए जरूरी प्रोत्साहन तंत्र, क्षमताओं और साझेदारी के निर्माण में भी बाधा डालती हैं.
इस नैरेटिव को सही दिशा में खड़ा करना भारत जैसे देश के लिए खास तौर पर महत्वपूर्ण है. औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं में एआइ के प्रमुख उपयोग के अनेक मामले उद्यम स्मस्याओं के समाधान पर केंद्रित हैं लेकिन भारत में एआइ उस साधन की तरह है जो विकास की निरंतर चुनौतियों से निबट सके.
स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक क्षेत्रों में सार्वजनिक सेवा उपलब्ध कराने में मौजूद खामियों को दूर करने के लिए एआइ ऐप्लिकेशन्स को विकसित किया गया है, उसका उपयोग लोगों की बुनियादी सेवाओं और अवसरों तक पहुंच को प्रभावित करेगा.
साथ ही, भारत जैसे युवा लोकतंत्रों में नुक्सान से बचाव और जोखिमों को कम करने की संस्थागत व्यवस्थाएं कमजोर और खंडित हैं, इसलिए संस्थागत विकास को आगे बढ़ाना संभव नहीं है. एआइ के नियमन पर जोर भी इस धारणा के कारण धुंधला रहे हैं कि एआइ भविष्य और आधुनिकता का बायस है और भारत जैसे विकासशील देश जो पिछली औद्योगिक क्रांतियों का लाभ लेने से चूक गए, वे अब इससे चूक जाने का जोखिम किसी भी तरह नहीं उठा सकते हैं.
प्रयोग या इनोवेशन?
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