पार्टी का विभाजन, वफादारी में बदलाव और कई कानूनी झटकों के साथ उद्धव ठाकरे के लिए हालात बेहद विपरीत दिखते हैं. जून 2022 में उनकी पार्टी से टूटकर एकनाथ शिंदे 39 अन्य विधायकों के साथ भाजपा से जा मिले और महाराष्ट्र विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार गिर गई. इससे न सिर्फ ठाकरे के ढाई साल का मुख्यमंत्री पद अचानक खत्म हो गया, बल्कि उनकी बाकी बची पार्टी शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे - यूबीटी) के पास मराठी माणूस के सहानुभूति वोट और कुछ हद तक अल्पसंख्यकों में पैठ जमाने की संभावना के अलावा ज्यादा कुछ नहीं बचा है.
इस तरह उद्धव नैतिक पायदान पर खड़े होकर शिंदे सरकार के खिलाफ हमलावर हैं. उन्होंने आरोप लगाया कि अंतरिम बजट 'ठेकेदार समर्थक और जनविरोधी' है. वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राज्य की दनादन यात्राओं को सबूत की तरह पेश कर रहे हैं कि सत्तारूढ़ गठबंधन अपनी चुनावी संभावनाओं को लेकर चिंतित है. इससे भाजपा चिढ़ गई है. ग्रामीण विकास मंत्री गिरीश महाजन ने 28 फरवरी को तंज कसते हुए कहा कि उद्धव महाराष्ट्र में एक भी लोकसभा सीट जीतकर दिखा दें: "बाघ की खाल ओढ़कर कोई बिल्ली शेर नहीं बन जाती."
दरअसल, विपक्ष का इंडिया ब्लॉक राष्ट्रीय स्तर पर कुछ झटके खा रहा है और शिंदे ने अपनी ताकत बढ़ाई है. ऐसे में, क्या ठाकरे मराठी टाइगर की वह दहाड़ भर सकते हैं, जो उनके दिवंगत पिता बालासाहेब ठाकरे की पहचान थी? वाकई यह आसान तो नहीं होगा. एक तो, भाजपा को सरकार बनाने से रोकने के लिए बना एमवीए गठबंधन अपने दो घटकों-शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में बड़ी टूट के बाद काफी कमजोर हुआ है. ठाकरे इससे भी काफी कमजोर हो गए हैं कि शिंदे को पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न सौंप दिया गया है. इससे शिंदे गुट को खुद को 'असली' शिवसेना कहने को मौका मिल गया. सरकार ग्रामीण मराठों को ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) कुनबी के रूप में कोटा देने का वादा करके उनके बीच अपनी पकड़ मजबूत कर रही है. उन्हें नौकरियों और शिक्षा में 10 फीसद आरक्षण भी दिया जा रहा है.
शिवसेना (यूबीटी) की रणनीति
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