बीसवीं सदी के शुरुआती नौसैन्य युद्धों में पहली बार अपना घातक असर दिखाने के बाद से ही पनडुब्बियां समुद्री गहराइयों की ओझल और खामोश निगहबान रही हैं. निगरानी, पीछा करने, खदेड़ने और शत्रु प्लेटफॉर्म को तबाह करने के वास्ते नौसेनाओं के लिए जरूरी पनडुब्बियां परमाणु युग में तो और भी ज्यादा प्रासंगिक हो गई हैं. भारतीय नौसेना अब अपने सबसे बड़े पनडुब्बी अधिग्रहण कार्यक्रम, प्रोजेक्ट 75 (इंडिया) या पी75 (आइ) के लिए कमर कस रही है. 1997 में शुरू 43,000 करोड़ रुपए के इस कार्यक्रम के तहत भारत का लक्ष्य संयुक्त उद्यम के जरिए छह उन्नत डीजल-इलेक्ट्रिक पारंपरिक पनडुब्बियां बनाना है, जो बेहतर सेंसर, हथियार और एयर इंडिपेंडेंट प्रोपल्शन (एआइपी) प्रणालियों से लैस हों. एआइपी यानी हवा से स्वतंत्र प्रणोदन प्रणाली की बदौलत गैर-परमाणु पनडुब्बियां लगातार 12 दिन पानी में डूबी रह सकती हैं, जिससे उनकी स्टेल्थ यानी छिपे रहने की क्षमता बढ़ जाती है. नौसेना के प्रस्ताव (आरएफपी) के मुताबिक पहली पनडुब्बी में 45 फीसद स्वदेशी सामग्री होनी चाहिए, जो छठी पनडुब्बी तक बढ़कर 60 फीसद होनी चाहिए. इसमें यह भी अपेक्षा की गई कि पहली पनडुब्बी अनुबंध पर दस्तखत होने से 84 महीनों या सात साल में मिल जाए.
कई मैन्युफैक्चरर के साथ सालों विचार-विमर्श के बाद पी75 (आइ) ठेके के लिए स्पेन की सरकारी स्वामित्व वाली फर्म नवंतिया और जर्मन कंपनी थिसेनक्रूप मरीन सिस्टम्स (टीकेएमएस) दौड़ में रह गईं. नौसेना की तरफ से आरएफपी के साथ पेश पनडुब्बियों के अनुपालन की जांच के लिए मैदानी मूल्यांकन परीक्षण (एफईटी) पूरा होते ही इस विशाल पनडुब्बी सौदे ने अंततः एक और मील का पत्थर पार कर लिया. नौसेना की टीम ने एफईटी के लिए मार्च में टीकेएमएस के शिपयार्ड का दौरा किया, तो जून के अंत में नवंतिया की पेशकश का मूल्यांकन किया. पनडुब्बियों के निर्माण के लिए टीकेएमएस ने मुंबई के मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स लिमिटेड (एमडीएल) के साथ और नवंतिया ने भारतीय फर्म लार्सन ऐंड टुब्रो (एलऐंडटी) के साथ हाथ मिलाया है. जर्मन कंपनी ने अपनी टाइप 212 पनडुब्बियों के साथ एफईटी में बढ़त हासिल कर ली बताई जाती है, क्योंकि नवंतिया एआइपी के लिए नौसेना की कठोर आवश्यकताओं को पूरा करने में नाकाम रही. नौसेना ने अपनी रिपोर्ट रक्षा मंत्रालय को सौंप दी है.
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