सन 1988 में जब राज कपूर का निधन हुआ था तब जनसत्ता अखबार में संपादक प्रभाष जोशी ने एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था, “सब हमसफर, सपनों के सौदागर।" प्रभाष जी ने कुछ ऐसा लिखा था कि जब युवावस्था में वे ग्राम स्वराज के सर्वोदयी आदर्श से प्रभावित होकर शिप्रा किनारे एक गांव सुनवानी महाकाल में कार्यरत थे तो रोज शिप्रा नहाने जाते वक्त फिल्म फिर सुबह होगी का गीत "वह सुबह कभी तो आएगी" गुनगुनाया करते थे। वह लेख उनके युवावस्था के आदर्शवाद से राज कपूर के रिश्ते, आजादी के बाद की उन दिनों की उम्मीदों और मोहभंग की कथा थी। यह भी कि तमाम विफलताओं के बावजूद वह दौर और ये आदर्श कितने मूल्यवान थे, जिनके सांस्कृतिक प्रतीक प्रभाष जी और उनकी पीढ़ी के लिए राज कपूर थे।
प्रभाष जी जल्दी ही गांव से निकल कर इंदौर में पत्रकारिता करने लगे और पत्रकारिता में उनके अद्वितीय कार्यकाल और योगदान का बखान करने की यहां जरूरत नहीं है, लेकिन प्रभाष जी में इस बात के लिए एक अपराध बोध हमेशा बना रहा कि उन्होंने सामाजिक कार्यकर्ता के कठिन जीवन को त्याग कर पत्रकारिता के अपेक्षाकृत सुविधाजनक जीवन को स्वीकार किया। यह अपराध बोध उनके लेखन में बार-बार झलकता है। राज कपूर वाले लेख में भी था - "आए थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास" यह पंक्ति वे अक्सर लेखन और कथन में दोहराया करते। पत्रकारिता करते हुए भी कार्यकर्ता होने की वे जीवन भर कोशिश करते रहे।
तटस्थ रूप से सोचने पर प्रभाष जी के इस विचार से सहमत होना कुछ मुश्किल है। प्रभाष जी का पत्रकारिता में जो योगदान है वह बहुत बड़ा है। उन्होंने इसे इतना समृद्ध किया है कि उनकी पत्रकारिता समाज के लिए महत्वपूर्ण है। लगता है कि शायद उन्होंने ठीक ही रास्ता अपनाया था। यह सही है कि आजादी के दौर की पीढ़ियों की कई विफलताएं हैं। वे लोग उन कसौटियों पर पूरी तरह खरे नहीं उतरे जो उनके वक्त और इतिहास की मांग थी, लेकिन यह भी सही है। कि गांधी और नेहरू के दौर की विफलताएं भी आज के दौर की सफलताओं से ज्यादा सार्थक थीं। वह सुबह नहीं आई जिसका जिक्र साहिर लुधियानवी के लिखे उस गीत में है जिसे राज कपूर पर फिल्माया गया था, लेकिन वह खोज व्यर्थ नहीं थी। अगर उस पर संदेह होता है, तो वह जिम्मेदारी हमारे आज के दौर की है।
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