मधुमास में वसंत ही तपिश उगलने लगा है और 17वीं लोकसभा चुनाव का सियासी पारा उफान पर है, जिसकी आंच शायद पहली दफा चुनावी मैदान से इतर संवैधानिक संस्थाओं में भी महसूस की जा रही है। सुप्रीम कोर्ट के आगे गुहार-दर-गुहार लगाई जा रही है। चुनाव आयोग पर मांगें अनसुनी करने और केंद्रीय प्रवर्तन एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप विपक्ष के चुनावी प्रचार का हिस्सा हैं। विपक्ष लोकतंत्र पर खतरे से आगाह कर रहा है, तो सत्ता पक्ष 2047 तक विकसित भारत के सपने दिखा रहा है। जाहिर है, ये चुनाव सामान्य नहीं हैं और इन्हें पारंपरिक पैमानों से समझ पाना भी शायद आसान नहीं है, पार्टियों के दावों से तो बिल्कुल नहीं। भले सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) खुद के लिए 370 और अपने एनडीए गठजोड़ के लिए 400 पार का नारा उछाले या विपक्षी ‘इंडिया’ गठजोड़ की प्रमुख पार्टी कांग्रेस के नेता भाजपा के 180 या 200 के नीचे सिमट जाने का दावा करे। सबकी कोशिश 543 सदस्यीय लोकसभा में सरकार बनाने के लिए जरूरी 272 के आंकड़े को छूने की लगती है। यही वजह है कि ज्यादा से ज्यादा पार्टियों, राजनैतिक समूहों, सामाजिक सामुदायों और छोटे-बड़े दायरों में रसूख रखने वाले नेताओं को जोड़ने या दूसरे के पाले से तोड़ने की कवायद शायद ही पहले कभी देखी गई। जोड़तोड़ के इस खेल में सारी मर्यादाएं बेमानी होती दिख रही हैं।
この記事は Outlook Hindi の April 29, 2024 版に掲載されています。
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