पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी जब पश्चिम बंगाल के लिए अपनी दावेदारी ठोकने की तैयारी में थी, तब पार्टी के एक वरिष्ठ विचारक ने कहा था कि सूबे की राजनीति में ममता बनर्जी के उदय ने सामाजिक-सांस्कृतिक दायरे में भद्रलोक के वर्चस्व को तोड़ कर भाजपा की राह आसान कर दी है। उनका कहना था, ‘‘अपने सेकुलर-लिबरल विचारों पर गर्व करने वाला भद्रलोक ही बंगाल में हमारी व्यापक स्वीकार्यता की राह में रोड़ा रहा है, लेकिन बनर्जी के उदय के बाद निम्न वर्ग का सिक्का मजबूत हो चला है।’’ भद्रलोक, बंगाल में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित अधिकांशत: उच्चवर्गीय और मध्यवर्गीय हिंदू सवर्णों के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जिनका आजादी के पहले के दौर से ही यहां सामाजिक प्रभुत्व रहा है। भद्रलोक के लिए संस्कृति बहुत महत्वपूर्ण आयाम रही है। इन परिवारों के बच्चों को अकसर चित्रकला, कविता, गायन, वादन, नृत्य और तमाम कलाओं में प्रशिक्षित किया जाता है। इसके उलट ममता बनर्जी निम्न मध्यवर्गीय परिवार से आती हैं और कलाओं के बगैर बड़ी हुई हैं। बंगाल में भद्रलोक और छोटोलोक के विभाजन में ममता दूसरे पाले से आती हैं।
अपने स्वभाव में नाटकीय और वाचाल रहीं ममता को इसलिए जात्रा का एक आदर्श किरदार माना गया था। जात्रा बांग्ला लोककला का एक रूप है जिसे भद्रलोक अच्छी नजर से नहीं देखता क्योंकि वह अभिजात्य नहीं है। इसके बावजूद बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में जात्रा बहुत लोकप्रिय है। नब्बे के दशक में जब ममता को अग्निकन्या के नाम से प्रसिद्धि मिलने लगी, उस वक्त उनके विरोधी उन्हें अनौपचारिक संवादों में बोस्तिर माये (झुग्गी वाली औरत) या काजेर माशी या झी (नौकरानी) कहकर संबोधित करते थे। उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को 1998 में उसके जन्म से ही ‘‘भद्रलोक-रहित कांग्रेस’’ माना जाता रहा।
この記事は Outlook Hindi の June 10, 2024 版に掲載されています。
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