देहरादून के निकट सत्यनारायण के जंगल की बात हरादून है। दिसंबर का महीना देहरादून के मौसम के लिए नब्बे के दशक में कोई बहुत आकर्षक नहीं माना जाता था। सूखी ठंडी हवाएं हाड़ कंपा देने का माद्दा रखती थीं, मगर वन महाविद्यालय में कहावत प्रचलित थी कि फॉरेस्ट सर्विस प्रशिक्षण के मामले में आर्मी के मुकाबिल है। आर्मी कॉलेज की सीमा और वन अनुसंधान संस्थान अगल-बग़ल में थे, इसलिए कैडेट्स की भी परस्पर आवाजाही बनी रहती थी।
किस्सा यह है कि वन महाविद्यालय के प्रशिक्षु उस सर्दी में भी सत्यनारायण के जंगल में प्रशिक्षण लेने आए हुए थे। सागौन के जंगल में अभी पतझड़ नहीं हुआ था, इसलिए दो-दो फीट लंबे सागौन के पत्ते हवा में झूल रहे थे। ऊंचे शाल वृक्षों पर धनेश पक्षी जोड़े में बैठे हुए थे, सात बहिनों की आपस की चिकचिक हमारे आने के बावजूद निर्विघ्न जारी थी। हंटर शू के अलावा वही एक आवाज़ थी जो उस माहौल में सबसे ज़्यादा डेसिबल वाली थी। हम अस्सी प्रशिक्षु दस-दस की आठ पंक्तियों में 'फाल-इन' थे।
जब जंगल में अचानक दिख जाए हाथी
जिस जगह हम खड़े हुए थे, वह एक छोटी-सी पहाड़ी पर समतल स्थल था जिसे 'प्लेटो' कहते हैं। तभी वह घटित हो गया जिसे हमारे पुरखों ने शायद देखा हो, मगर हमने कभी नहीं देखा था। डर के मारे सबकी घिग्घी बंध चुकी थी। चूंकि वन अनुसंधान संस्थान एशिया का सबसे बड़ा और प्रतिष्ठित संस्थान है, इसलिए पड़ोसी देशों के ट्रेनी भी हमारे ग्रुप में थे। उत्तरी भारत समेत पूर्वोत्तर और लगभग सारे देश के युवा अवाक् और हतप्रभ थे। हाथियों का एक समूह अचानक हमसे लगभग महज़ सौ मीटर की दूरी पर जैसे उदित हुआ। निःशब्द, मदमाता, अपने में निमग्न। दो बच्चे, छह मादाएं, चार छोटे नर ', और आगे एक बड़ा दंतुर हाथी। कुल नफरी तेरह। जिस जगह से निकला था ठीक उसी दिशा में बढ़ता हुआ। हमें अनदेखा करता हुआ। हमारे इंस्ट्रक्टर ने पहले ही समझाइश दी हुई थी कि इस क्षेत्र में हाथी मिल सकते हैं और आपको केवल इतना करना है कि बिना डरे सावधान की मुद्रा में खड़े रहना है, बिना कोई अनावश्यक हलचल किए हुए। उस समय तो हमने उनकी बात अनसुनी कर दी थी, मगर अब जान पर आ पड़ी थी। हाथी अठखेलियां करते हुए अपनी दिशा में जा रहे थे, हमारी उपेक्षा करते हुए हमारे समानांतर और लंबवत।
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