हरियाणा में जीत की चौतरफा उम्मीदों के बीच कांग्रेस पार्टी की हैरतअंगेज हार और जम्मू व कश्मीर में उसका औसत से कमतर प्रदर्शन महज फौरी ठोकर से कहीं ज्यादा है. इन झटकों ने एक बार फिर पार्टी में गहरी जड़ें जमाए बैठी ढांचागत खामियों को उजागर कर दिया. हरियाणा में कांग्रेस ने 90 सदस्यों की विधानसभा में 37 सीटें हासिल कीं और वह चुनाव हार जिसमें उसके समर्थक और विरोधियों ने भी मान लिया था कि उसकी दोटूक जीत होगी. जम्मू-कश्मीर में पार्टी ने 32 सीटों पर चुनाव लड़ा और मात्र छह जीतीं और वह सरकार में होगी तो केवल इसलिए कि उसकी सहयोगी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस ने दमदार प्रदर्शन किया.
इन नतीजों ने इस अफसाने की हवा निकाल दी कि कांग्रेस मई में हुए लोकसभा चुनाव में अपनी सीटों की संख्या में अच्छा-खासा इजाफा करने के बाद फिर उभरने की राह पर है. उनसे यह भी पता चलता है कि कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना सरीखी जीतों और एक ही नेता पर अत्यधिक निर्भरता और तार-तार हो चुके आंतरिक ढांचे ने हेकड़ी और अक्खड़पन को जन्म दिया. चल निकलने के भ्रम ने अपने भीतर के मुद्दों से कांग्रेस का ध्यान भटका दिया. अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के एक पदाधिकारी तंज भरे ढंग से कहते हैं, "सफलता कांग्रेस में आत्मसंतुष्टि को जन्म देती है, जिससे बदलता राजनैतिक परिदृश्य उसकी नजर से चूक जाता है."
सहयोगियों को करीब रखें
महाराष्ट्र और झारखंड में अगले महीने चुनाव होने वाले हैं, इसलिए पार्टी के पास गंवाने के लिए वक्त नहीं है. महाराष्ट्र में लोकसभा की 17 सीटों पर लड़कर 13 पर जीत हासिल करने के बाद पार्टी महा विकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन में 'तीसरे सहयोगी दल' से हटकर ज्यादा दमदार भूमिका में आ गई थी. यहां तक कि वह सबसे ज्यादा सीटों से चुनाव लड़ने पर नजरें गड़ाए थी, लेकिन हरियाणा की हार का उसकी स्थित पर असर पड़ेगा. यह होने भी लगा है. नतीजों के एक दिन बाद एमवीए के सहयोगी दल शिव सेना (यूबीटी) के मुखपत्र सामना के संपादकीय में बहुत तीखी बातें कही गई और कांग्रेस को 'अवज्ञाकारी नेताओं को नियंत्रण में नहीं रख पाने और 'जीती हुई पारी को हार' में बदलने के लिए आड़े हाथों लिया गया.
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