अमूमन चुनावी नारे और घोषणा-पत्र मौजूदा और अगली सियासत की झांकी पेश करते हैं। पुराने चुनावों को याद कीजिए तो कमोबेश सियासत की धारा भी वैसी ही बहती रही है। अलबत्ता, खासकर घोषणा-पत्र तो लंबे सफर में न सिर्फ अपनी अर्थवत्ता खोते गए हैं, बल्कि ‘जुमले’ बनकर भी रह गए। कुछ दशक पहले तक पार्टियों के घोषणापत्रों को गंभीरता से लिया जाता रहा है, लेकिन घोषणापत्र, दृष्टिपत्र, संकल्पपत्र, वचनपत्र और अब गारंटी तक के इस सफर में मायने इस कदर खो गए हैं कि ये मतदान की तारीखों के आसपास जारी किए जाते हैं, मानो कोई पढ़ने की जहमत न ही उठाए तो बेहतर। यही नहीं, कई बार इनमें और आम पर्चे में फर्क करना भी मुश्किल होता जा रहा है। जैसा कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का घोषणा-पत्र जारी करते समय रायपुर में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने एक सवाल में कहा भी, “लंबी-चौड़ी घोषणाएं कौन पढ़ता है, इसलिए प्वाइंटर में जिक्र किया गया है।” वजह शायद यह है कि नीतियों के बदले कल्याणकारी गारंटियों का दौर आ गया है। यानी जिस नीतिगत बदलाव से बड़े पैमाने पर सामाजिक पहल की जिम्मेदारी कल्याणकारी राज्य की हुआ करती थी, अब उसका जिम्मा पार्टियों ने ओढ़ लिया है। सो, जो पार्टी ज्यादा लुभावनी गारंटियां दे, वह चुनावी जीत की उम्मीद उतनी ही ज्यादा करती है।
बेशक, यह सिलसिला नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद के दशकों में कुछ-कुछ धीरे-धीरे शुरू हुआ, जब ज्यादातर मुख्यधारा की पार्टियों में आर्थिक नीतियों को लेकर फर्क मिट गए। कांग्रेस और भाजपा ही नहीं, वाम रुझान वाली पार्टियों का भी आर्थिक नजरिया बड़े और विदेश पूंजी निवेश को अकाट्य-सा मानने लगा। यानी नव-पूंजीवाद में सभी उम्मीद खोजने लगे। मशहूर अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं, “दरअसल आजादी के बाद से ही ट्रिकल डाउन की नीति अपनाई गई और कहा गया कि समृद्घि रिस-रिस कर निचले तबके में जाएगी, लेकिन ऐसा होना नहीं था। गरीब और गरीब बनते गए। अब जब उदारीकरण के बाद के दशकों में बड़े और संगठित उद्योगों का दौर बुलंदी पर आया तो ऑटोमेशन वगैरह से रोजगार घटने लगे। नेताओं पर लोगों को भरोसा नहीं रह गया। फिर जो ज्यादा रियायतें देता है, उसे वोट मिलने की उम्मीद होती है।''
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मूर्धन्य कलाकार मोहन अगाशे की शख्सियत के कई पहलू हैं। एक अभिनेता के बतौर उन्होंने समानांतर सिनेमा के कई प्रतिष्ठित निर्देशकों के साथ काम किया। घासीराम कोतवाल (1972) नाटक में अपनी भूमिका के लिए वे खास तौर से जाने जाते हैं। वे मनोचिकित्सक भी हैं। मानसिक स्वास्थ्य पर उन्होंने कई फिल्में बनाई हैं। वे भारतीय फिल्म और टेलिविजन संस्थान (एफटीआइआइ) के निदेशक भी रह चुके हैं। उनके जीवन और काम के बारे में हाल ही में अरविंद दास ने उनसे बातचीत की। संपादित अंशः
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कारोबारी दायरे के भीतर उन्हें विनम्र और संकोची व्यक्ति के रूप में जाना जाता था, जो धनबल का प्रदर्शन करने में दिलचस्पी नहीं रखता और पशु प्रेमी था
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पाकिस्तानी गर्दिश
कभी क्रिकेट की बड़ी ताकत के चर्चित टीम की दुर्दशा से वहां खेल के वजूद पर ही संकट
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कीटनाशक के नाम पर नशीली दवा बनाने वाले कारखाने का भंडाफोड़
'करता कोई और है, नाम किसी और का लगता है'
मुंबई पर 2011 में हुए हमले के बाद पकड़े गए अजमल कसाब के खिलाफ सरकारी वकील रहे उज्ज्वल निकम 1993 के मुंबई बम धमाकों, गुलशन कुमार हत्याकांड और प्रमोद महाजन की हत्या जैसे हाइ-प्रोफाइल मामलों से जुड़े रहे हैं। कसाब के केस में बिरयानी पर दिए अपने एक विवादास्पद बयान से वे राष्ट्रीय सुर्खियों में आए थे। उन्होंने 2024 में भाजपा के टिकट पर उत्तर-मध्य मुंबई से लोकसभा चुनाव लड़ा और हार गए। लॉरेंस बिश्नोई के उदय और मुंबई के अंडरवर्ल्ड पर आउटलुक के लिए राजीव नयन चतुर्वेदी ने उनसे बातचीत की। संपादित अंश:
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