
दस साल की सत्ता कहिए, या चाहें तो उसमें 49 दिन और जोड़ लीजिए। इतने दिन बाद आम आदमी पार्टी (आप) सरकार की विदाई खास हो - हल्ले और द 'ऐतिहासिक' जैसे उपमाओं की बानगी नहीं होनी चाहिए थी । न ही दिल्ली जैसी छोटी और बमुश्किल आधी-अधूरी सरकार के लिए इतना हंगामा बरपा होना चाहिए था। फिर, ऐसे दौर में जब लोकतंत्र, जनादेश, चुनाव प्रक्रिया पर तरह-तरह के सवाल, आरोप-प्रत्यारोप उठ रहे हों, मनमाफिक निर्मित जनादेश जैसे पद गंभीर चर्चा में हों, चुनावी राजनीति के वादों में कोई फर्क न दिखता हो, महज दो प्रतिशत वोटों का फासला जनता के मूड का स्पष्ट नहीं, बल्कि उलझन भरा संदेश ही देता है। यह तो, दिल्ली की अहमियत या कहें प्रतीकात्मक अहमियत है, जो उसे राजनीति में कुछ ऊंचे पायदान पर ला खड़ा करती है । या कहें दिल्ली में केंद्रीय सत्ता की मौजूदगी के चलते यहां से निकली राजनैतिक धाराओं की गूंज देश भर में सुनाई पड़ने लगती है।
मौजूदा संदर्भ में ही देखें तो 2014 के बाद बदली सियासी फिजा की पृष्ठभूमि दिल्ली में 2011 के अन्ना आंदोलन ने तैयार की और आम आदमी पार्टी एक नई सियासी धारा के वादे के साथ उभरी, जिससे वह अपनी तमाम खामियों-कमजोरियों के बावजूद देश की सियासत में एक अहम पायदान पर खड़ी हो गई। तो, अब उसके इस चुनावी पराभव से क्या राजनीति निकलेगी, आज सबसे मौजूं सवाल यही होना चाहिए।
शुद्ध चुनावी राजनीति के पैमाने पर आंकें तो आप इतनी भी कमजोर नहीं हुई है। दिल्ली में उसका मत प्रतिशत 2020 के राज्य चुनाव के मुकाबले तकरीबन 10 प्रतिशत गिरकर भी 43 फीसदी पर कायम है और पंजाब में भारी बहुमत की उसकी सरकार है। सत्ताइस साल बाद दिल्ली की सत्ता में लौटी भाजपा की सीटें भले दोगुनी से ज्यादा लगें, मगर वोट प्रतिशत आप से सिर्फ दो फीसदी ज्यादा, करीब 45 ही है। ये सब कहानियां अगले पन्नों पर विस्तार से बताई गई हैं।
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