सिनेमा समाज का दर्पण होता है और सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप ही सिनेमा बदलता रहा है. यह सिनेमा की शुरुआत से ही चला आ रहा है. हकीकत यह है कि दादा साहब फालके ( रामचंद्र गोपाल तोरणे) जैसे लोगों ने अंगरेजी शासन के खिलाफ लोगों को एकजुट करने और लोगों में राष्ट्रीयता की भावना को पैदा करने के मकसद से सिनेमा का निर्माण करना शुरू किया था.
वर्ष 1913 में उन्होंने पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' बनाई थी. वास्तव में आजादी से पहले 1913 से 1947 का दौर उन फिल्मों का रहा जिन में धार्मिक फिल्मों के माध्यम से राष्ट्रीयता की बात की गई. मगर आजादी के बाद भारतीय सिनेमा ने गति पकड़ी.
1913 में जब सिनेमा बनना शुरू हुआ तब हमारे देश में 'स्टूडियो सिस्टम' के तहत फिल्में बन रही थीं. देश में कुछ स्टूडियो थे जिन के यहां तकनीशियन व कलाकार मासिक वेतन पाने वाले मुलाजिम थे. 1947 में स्वतंत्रता पर भारत और पाकिस्तान के दर्दनाक विभाजन के बीच भारत में स्टूडियो सिस्टम समाप्त हो गया. इन से एक तरह से धर्म को ही बेचा गया.
1940 से ले कर 1960 के दशक को भारतीय सिनेमा के इतिहास में गोल्डन एरा माना जाता है. स्वतंत्रता के बाद बनने वाले सिनेमा में सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ, हिंदूमुसलिम बराबरी व एकता की बातें करने वाली फिल्में बनीं.
ख्वाजा अहमद अब्बास की 1949 में प्रदर्शित फिल्म ‘धरती के लाल' से यथार्थपरक सिनेमा की शुरुआत भी हो गई थी. यह एक ऐसी राजनीतिक फिल्म थी जिस में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के सामाजिक और आर्थिक बदलाव का यथार्थ था.
1940 और 50 के दशक में सामाजिक, रोमांटिक, संगीत, ऐक्शन, सस्पैंस, पौराणिक, कौस्ट्यूम ड्रामा आदि सामान्य विधाएं थीं. देशभक्ति या राष्ट्रवादी फिल्में अपवाद थीं. अपवादस्वरूप 1948 में प्रदर्शित वजाहत मिर्जा लिखित और रमेश सहगल निर्देशित फिल्म 'शहीद' सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्म बनी थी. इस फिल्म का कमर जलालाबादी द्वारा लिखित गीत 'वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हो...' अभी भी मार्मिक लगता है. यह फिल्म कथित तौर पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज की एक सच्ची घटना पर आधारित थी. इस के अलावा उसी वर्ष आजाद हिंद फौज पर आधारित विमल रौय निर्देशित फिल्म 'पहला आदमी' भी आई थी.
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