जबजब धर्म का राजनीति के साथ घालमेल हुआ है, तबतब हिंसा, कत्ल, दंगे, आगजनी की घटनाएं घटी हैं. धर्म की बुनियाद ही, आस्था के नाम पर, एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से अलग करना है. यही कारण है कि आज देश ऐसी विकट स्थिति पर आ कर खड़ा है जहां लोग एकदूसरे को इंसान कम हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई अधिक समझने लगे हैं, जिस कारण देश में अलगअलग जगह हिंसा भड़क रही है.
मणिपुर का मामला ठीक से शांत भी नहीं हुआ था कि हरियाणा जलने की कगार पर है. नौबत यह है कि नूंह से भड़की इस हिंसा ने हरियाणा के मेवात, गुरुग्राम, फरीदाबाद व रेवाड़ी जिले में भी दंगे भड़कने के पूरे आसार बना दिए हैं.
इस की मुख्य वजह में जाएं तो सामने वे लोग दिख जाएंगे जो किसी खास राजनीतिक और धार्मिक संगठनों से जुड़े हुए हैं, जो धर्मों के अनुसार एकदूसरे को मारनेकाटने में यकीन रखते हैं. फिलहाल यह नहीं कहा जा सकता कि इस की लपटें कहां तक पहुंचेंगी पर यकीनन धर्म को कट्टरता से मानने वालों के उन्माद से आज देश के आम नागरिक हिंसा की चपेट में बुरी तरह फंस चुके हैं.
मार्क्स ने धर्म को अफीम का दर्जा देते वक्त सोचा नहीं होगा कि वे यूफेमिज्म (लाक्षविक्रता) का सहारा ले रहे हैं. मार्क्स की अफीम आज कोकीन, हशीश और हेरोइन से भी ज्यादा प्रसंस्कृत हो चुकी है. लिहाजा, अगर उन्होंने धर्म को नशे के बजाय सीधेसीधे नफरत फैलाने वाला कहा होता तो शायद गलत नहीं था. पूरी दुनिया में धर्मकेंद्रित आतंकवाद के उभरने से यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि धर्म दिलों को जोड़ नहीं, बल्कि तोड़ रहा है.
जमीनी सचाई भी यही है कि विभिन्न धर्मों की जड़ता और कट्टरता की वजह से विश्व 21वीं सदी में पहुंच कर भी पाषाणयुग के मुहाने पर खड़ा दिखाई देता है. महाकवि इकबाल के फलसफे 'मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना' से कोसों दूर धर्म आज वास्तविक धरातल पर मजहबी विद्वेष और अराजकता की आधारभूमि बना हुआ है.
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अच्छा लगता है सिंगल रहना
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