रणनीतियां पार्टियों के चुनावी टिकटों से बेहतर किसी और मामले से शायद ही जाहिर होती हैं। फिर, जब मध्य भारत के इस 230 विधानसभा सीटों वाले राज्य में सबसे ज्यादा दांव लगे हों और दोनों प्रमुख दावेदारों भाजपा और कांग्रेस के टिकटों के बंटवारे को लेकर घमासान मचा हो तो रणनीतियों की उलझनें और अनिश्चय भी खुल जाते हैं। वैसे, दोनों पार्टियां 17 नवंबर को तय मतदान के लिए बड़े प्रयोग की आजमाइश करती दिखती हैं। सत्ता पर अपना दावा ठोंकने वाली कांग्रेस में सिर-फुटव्वल कुछ कम दिखी, मगर तकरीबन 18 साल से सत्ता पर काबिज भाजपा में प्रदेश के चारों-पांचों क्षेत्रों में प्रदर्शन, मार-पीट तक दिखी। इसकी वजह पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का प्रभुत्व है, जो कुछ महीने बाद ही अगले साल लोकसभा चुनावों के मद्देनजर कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहता। इसी रणनीति के तहत तकरीबन सात केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को भी मैदान में उतार दिया गया। इसके जरिये यह कोशिश लगती है कि प्रदेश भाजपा और लगभग दो दशकों से सत्ता पर काबिज मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के खिलाफ सत्ता-विरोधी रुझान की काट की जा सके, हालांकि उम्मीदवारों की पहले जारी दो सूचियों के बाद केंद्रीय नेतृत्व को विरोध देखकर कुछ झुकना पड़ा और बाद की सूचियों में प्रदेश इकाई के चार-पांच खेमों और शिवराज सिंह का खयाल रखना पड़ा।
2018 के विधानसभा चुनावों में जीत के बावजूद भाजपा के ऑपरेशन लोटस के हाथों सता गंवा बैठी कांग्रेस में इस बार जीत का उत्साह दिख रहा है। ज्योतिरादित्य सिंधिया की अगुआई में 22 विधायक 2020 में पार्टी छोड़कर भाजपा में जा मिले तो कमलनाथ की सरकार महज डेढ़ साल में गिर गई थी। कांग्रेस अब उसका बदला लेने की फिराक में है। पार्टी को इसका एक फायदा यह जरूर दिख रहा है कि खेमेबाजी कम हो गई है। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह तकरीबन एका दिखा रहे हैं। कांग्रेस की रणनीति भाजपा के उलट राज्य नेतृत्व पर आश्रित है, जिसका एक विवादास्पद नजारा हाल में दिखा।
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