पुण्यपर्व अक्षया तृतीया शास्त्रीय और लौकिक महत्त्व
Jyotish Sagar|April-2023
हमारे देश के पर्वों और उत्सवों में से कुछ तो ऋतु पर्व हैं, जिनमें नई फसल पकने का आमोदप्रमोद और ऋतु परिवर्तन का उल्लास रचा-बसा होता है।
पुण्यपर्व अक्षया तृतीया शास्त्रीय और लौकिक महत्त्व

कुछ धार्मिक पर्व हैं, जो देवी-देवताओं को समर्पित होते हैं तथा कुछ लोक पर्व हैं, जो कि किसी ऐतिहासिक घटना के आधार पर लोकमानस ने प्रारम्भ किए थे। इन सबसे हटकर कुछ ऐसे पर्व भी हैं, जो मानव जीवन और मानव चिन्तन को एक विश्वजनीय, अखण्ड, अनादि और अनन्त सत्ता के साथ जोड़ते हैं। अक्षय तृतीया ऐसे ही पर्वों में से एक है, जिसे ‘पुण्य पर्व' कहा जा सकता है।

हमारे प्रत्येक धार्मिक कार्य के प्रारम्भ में जो संकल्प किया जाता है, उसमें देश और काल के स्मरण के नाम पर वह कार्य करने वाला व्यक्ति अपनेआपको सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक का इतिहास याद करते हुए वर्तमान बिन्दु से जोड़ता है। इसमें वह बतलाता है कि सृष्टि के प्रारम्भ से अब तक इतने कल्प, मन्वन्तर इतने और इतने युग बीत गए हैं। सृष्टि का यह कॅलेंडर अरबों वर्षों का है।

यह कॅलेंडर बिन्दु से वर्तमान इस प्रकार फैलता है : वर्तमान में हम कलियुग में बैठे हैं, जो 4 लाख 32 हजार वर्ष का होता है। इससे दोगुना द्वापर युग कहलाता है, जो इससे पूर्व बीत गया। कलियुग से तिगुना त्रेता युग कहलाता है, जो उससे पूर्व बीत गया और चौगुना सत्य युग कहलाता है, जो उससे भी पूर्व बीता था। इस प्रकार 43 लाख 20 हजार वर्ष की 'एक चतुर्युगी' हुई। यह हमारे कॅलेंडर का एक पैमाना है। ऐसी 71 चतुर्युगियों का 'एक मन्वन्तर' होता है और ऐसे 14 मन्वन्तरों का एक कल्प'।

सृष्टि के एक क्रम में ऐसे सात कल्प माने जाते हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर 4 अरब 32 करोड़ वर्ष के कल्प का सृष्टि क्रम प्रतिदिन हमें याद रखना होता है। इतनी बड़ी काल यात्रा से हमारा मन प्रतिदिन जुड़ा रहता है। वर्तमान में जो कल्प चल रहा है, उसका नाम 'श्वेतवाराह' है, जो मन्वन्तर चल रहा है, उसका नाम 'वैवस्वत ।' इस मन्वन्तर में 27 चतुर्युगियाँ बीत चुकी हैं, 27वीं चल रही है।

This story is from the April-2023 edition of Jyotish Sagar.

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