भास्कराचार्य का जन्म 1114 ई. में हुआ था। इनके पिता का नाम महेश्वर था। वे महाराष्ट्र में सह्याद्रि क्षेत्र के निवासी थे। में भास्कराचार्य का परिवार ज्योतिष एवं गणित के अध्ययन के लिए प्रसिद्ध था। पिता महेश्वर ने बहुत से ज्योतिषीय ग्रन्थों की भी रचना की थी। पिता को ही गुरु मानकर भास्कराचार्य ने उनसे ज्योतिष, गणित, वेद-वेदांग, व्याकरण एवं दर्शन ग्रन्थों की शिक्षा ली थी। भास्कराचार्य ने गणित विधा में कई अमूल्य ग्रन्थों की रचना की थी।
रचित ग्रन्थों का परिचय
भास्कराचार्य रचित ग्रन्थ 'लीलावती' प्राचीन गणित विधा का प्रसिद्ध प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। कुछ इतिहासकारों का कथन है कि ग्रन्थकार ने अपनी पत्नी अथवा पुत्री के नाम पर ग्रन्थ का यह नाम रखा था। ग्रन्थ का प्रारम्भ निम्नांकित मंगलाचरण से हुआ था :
प्रीतिं भक्तजनस्य यो जयते विघ्नं विनिघ्नन् स्मृतस्तं वृन्दारकवृन्दवन्दितपदं नत्वा मतंगाननम् । पाटीं सद्गणितस्य वच्मि चतुरप्रीतिप्रदां प्रस्फुटां संक्षिप्ताक्षरकोम लामलपदैर्लालित्यलीलावतीम् ॥
अर्थात् स्मरण करने पर जो भक्तजन के विघ्नों को नाशकर प्रीति प्रदान करते हैं, देवताओं के समूह से नमस्कृत चरण वाले उन श्रीगणेश जी को प्रणाम कर (मैं भास्कराचार्य) चतुरजन को प्रीति देने वाली, स्पष्ट, थोड़े अक्षर, कोमल तथा दोषरहित पदों से युक्त एवं माधुर्य से भरी हुई 'लीलावती' नामक पाटीगणित को कहता हूँ। 'लीलावती' ग्रन्थ में लिखा है कि जब किसी अंक को शून्य से भाग दिया जाता है, तो उसका फल अनन्त अर्थात् Infinity प्राप्त होता है यथा;
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सात धामों में श्रेष्ठ है तीर्थराज गयाजी
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प्रसिद्ध धार्मिक सचित्र पत्रिका ‘कल्याण’ एवं ‘गीताप्रेस, गोरखपुर के सत्साहित्य से शायद ही कोई हिन्दू अपरिचित होगा। इस सत्साहित्य के प्रचारप्रसार के मुख्य कर्ता-धर्ता थे श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार, जिन्हें 'भाई जी' के नाम से भी सम्बोधित किया जाता रहा है।
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सेतुबन्ध और श्रीरामेश्वर धाम की स्थापना
जो मनुष्य मेरे द्वारा स्थापित किए हुए इन रामेश्वर जी के दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ाएगा, वह मनुष्य तायुज्य मुक्ति पाएगा अर्थात् मेरे साथ एक हो जाएगा।
वागड़ की स्थापत्य कला में नृत्य-गणपति
प्राचीन काल से ही भारतीय शिक्षा कर्म का क्षेत्र बहुत विस्तृत रहा है। भारतीय शिक्षा में कला की शिक्षा का अपना ही महत्त्व शुक्राचार्य के अनुसार ही कलाओं के भिन्न-भिन्न नाम ही नहीं, अपितु केवल लक्षण ही कहे जा सकते हैं, क्योंकि क्रिया के पार्थक्य से ही कलाओं में भेद होता है। जैसे नृत्य कला को हाव-भाव आदि के साथ ‘गति नृत्य' भी कहा जाता है। नृत्य कला में करण, अंगहार, विभाव, भाव एवं रसों की अभिव्यक्ति की जाती है।
व्यावसायिक वास्तु के अनुसार शोरूम और दूकानें कैसी होनी चाहिए?
ऑफिस के एकदम कॉर्नर का दरवाजा हमेशा बिजनेस में नुकसान देता है। ऐसे ऑफिस में जो वर्कर काम करते हैं, तो उनको स्वास्थ्य से जुड़ी कई परेशानियाँ आती हैं।
श्रीगणेश नाम रहस्य
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