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वही नहीं रहेंगे देश-दुनिया के रिश्ते
दुनिया बदल रही है। दुनिया के रिश्ते बदल रहे हैं। बातचीत के तौर-तरीके बदल रहे हैं। सीधे मेल-मुलाकातों के बजाय वर्चुअल मुलाकातों पर जोर है। भारत की पहल पर ही इस बार जी-20 की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये हुई। ऐसा बहुत कुछ है,जो उम्मीद जगाता है कि भारत इन बदले हुए हालात में दुनिया का नेतृत्व कर सकता है
कितना कुछ बदलेगी दुनिया!
कोरोना से उपजे विश्वव्यापी लॉकडाउन से बहुत कुछ बदलेगा। इसका असर अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पर भी पड़ेगा। एक तरफ चीन, वैश्विक स्तर पर रूस और अमेरिका, विशेषकर अमेरिका के प्रभुत्व को चुनौती दे रहा है, तो दूसरी तरफ दुनिया में भारत को एक नई संभावना के रूप में देखा जा रहा है
ठहरे हुए दिनों में जीवन
जीवन ठहरकर भी नहीं ठहरता। उसके ठहराव में भी गति होती है। यह अलग बात है कि वह हमें दिखाई नहीं देती। इन ठहरे हुए दिनों में जब सब कुछ ठहर-सा गया है, तो बुहत कुछ ऐसा है जो चल रहा है। क्या चल रहा है, यह जानने के लिए हमारे साथी शशिभूषण द्विवेदी ने साहित्य की अलग-अलग शख्सियतों से कुछ बात की तो यह सच सामने आया। दुर्भाग्य से इनके जीवन की यह अंतिम रिपोर्ट थी, जिसका अहसास न इन्हें था और न ही हमें। एक श्रद्धांजलि
अपने-अपने लॉकडाउन
कभी-कभी कोई चीज आपके जीवन में अचानक से आती है और आपकी पूरी दुनिया बदल जाती है। यह बदलना अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी। कभी-कभी तो यही समझ ही नहीं आता कि यह अच्छा है या बुरा।
उस एकांत को साधना जरूरी है
अपने भीतर के एकांत को साधे बिना इनसान, समाज के लिए कुछ नहीं कर सकता। भीतर से बाहर की यात्रा और बाहर से भीतर की यात्रा जीवन का एक चक्र है। इसके बिना मानव की मुक्ति नहीं। एकांत साधना साधक को 'स्व' से ऊपर उठाकर 'पर' से जोड़ती है और हमारे भीतर के भय को दूर करती है
आधी आबादी का लॉकडाउन!
स्त्री की जिंदगी शुरू से ही एक दायरे में सिमटी रही है। यह दायरा घर की चारदीवारी रहा है। कभी सुरक्षा के नाम पर, तो कभी आपदा के नाम पर कारण सामने आ खड़े होते हैं। कोरोना से उपजे लॉकडाउन ने सभी को घरों में कैद कर दिया है, लेकिन जिंदगीभर के अघोषित लॉकडाउन को जी रही स्त्रियों के लिए क्या इसके समाप्त होने की भी कोई तारीख है
भविष्य की राजनीति-राजनीति का भविष्य
कोरोना महामारी के कारण पूरी दुनिया लॉकडाउन के दौर से गुजर रही है। पूरा जनजीवन इसकी गिरफ्त में है। राजनीति भी इससे अछूती नहीं है। इसके कारण राजनीति के एक नए रूप की संभावना नजर आ रही है। यह संभावना हकीकत में क्या रूप लेगी, यह भविष्य के गर्भ में छिपा है
यहाँ लॉकडाउन मना है
घर में कैद इनसान के लिए टेक्नोलॉजी से बेहतर दोस्त और कोई नहीं हो सकता। यह बात लॉकडाउन ने साबित कर दी है। यह सिर्फ हमारी जरूरतें ही पूरी नहीं करती, हमारा मनोरंजन भी करती है और अकेलेपन से बचाती है -
जादू की झप्पी ना बाबा ना!
सब कुछ अपनी बांहों में समेट लेने को आतुर नौजवान आजकल कुछ निराश हैं। परेशान हैं। उदास हैं। उनके हौसलों की गति भी कुछ कम हुई है, लेकिन उस पर ब्रेक नहीं लगे हैं। घर के भीतर रहकर बाहर के हालात का जायजा ले रही यह पीढ़ी अपने सपनों को नए रूप में आकार देने की मुहिम में जुटी हुई है
शिक्षा का लॉकडाउन - लॉकडाउन की शिक्षा
इस लॉकडाउन ने जीवन में उथल-पुथल मचाई हुई है। कहीं जिंदगी ठप पड़ी हुई है, तो कहीं ठिठकी हुई है। इन सबके बीच कहीं- कहीं जिंदगी के लिए नए- नए अवसर भी पैदा हो रहे हैं।
हमारी संवेदनाओं का लॉकडाउन
यह समय कष्ट का भी है और चुनौती का भी। चुनौती है इनसान बने रहने की। अपने भीतर की आदमियत को बचाए रखते हुए हमें इस संघर्ष से पार पाना है। व्यवस्था का लॉकडाउन भले ही चल रहा है, लेकिन हमें अपनी संवेदना का लॉकडाउन नहीं होने देना है
एटम बम
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागाशाकी शहरों पर परमाणु बम गिराया था। यह किसी महामारी से कम नहीं था, क्योंकि इसमें जो लोग बच गए थे उनके लिए जीना दर्द के दरिया को पार करने जैसा था। कई दशकों तक लोगों पर इसके विकिरण का प्रभाव रहा। लेकिन ऐसे में भी मनुष्य की जिजीविषा ही काम आई और वह फिर उठ खड़ा हुआ
कोरोना के संत
कोरोना महामारी और उसके चलते हुए लॉकडाउन ने हम सबकी जिंदगी बदलकर रख दी है। आनेवाले समय में जब इतिहास लिखा जाएगा, तो शायद वह इतिहास भी लॉकडाउन पूर्व और लॉकडाउन बाद ही दर्ज हो। इसने हमारी जीवनशैली तो बदली ही,हमारी भाषा में तमाम नए शब्द भी जोड़ दिए हैं जो ऐतिहासिक हैं
हताशा में जगातीं आशा
आशा और उम्मीद शब्द भर नहीं हैं। मनुष्य की रचनात्मकता और जिजीविषा के स्रोत हैं। मानवीय इतिहास के हजारों-लाखों साल में कितनी विपदाएं, कितनी महामारियां और कितने संकट आए, कितनी सभ्यताएं नष्ट भी हुईं, लेकिन मनुष्य की उम्मीद ने उसका साथ नहीं छोड़ा और वह फिर उठ खड़ा हुआ। दुनियाभर का साहित्य इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य कभी हार नहीं सकता
अदम्य जिजीविषा की कहानियां
जीवन चलते-चलते जैसे अचानक ठहर-सा गया है। चारों तरफ डर का माहौल है। अपनों के साथ होते हए भी अपनों से दूर होने का डर। इस डर को जितना भगाओ, उतना ही यह और करीब आता जाता है।
ज़िंदगी को एक मतलब चाहिए
समुद्री पक्षियों के बारे में कहा जाता है कि वे कभी ऊंची उड़ान नहीं उड़ सकते। उनकी उड़ान सिर्फ मछली पकड़ने तक सीमित रहती है। लेकिन जोनाथन सामान्य समुद्री पक्षी नहीं था। उड़ान ही उसका लक्ष्य था। अपनी अदम्य जिजीविषा से उसने वह कर दिखाया, जो कोई नहीं कर सका
आदमी हारने के लिए पैदा नहीं हुआ
हौसला उम्र नहीं देखता। यह ऐसा जज्बा है,जो इनसान को हारने के बाद भी टूटने नहीं देता है। उम्र के आखिरी पड़ाव की ओर बढ़ रहे व्यक्ति में भी यह जोश भर सकता है। 'द ओल्ड मैन एंड द सी' एक ऐसे ही बेमिसाल हौसले की दास्तां है। नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत इस उपन्यास को मशहूर अमेरिकन कथाकार अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने लिखा है
हंसो ,हंसो और हंसो
हंसो ,हंसो और हंसो
प्रकृति का उत्सव असम का बोहाग बिहू
बिहू असम का लोक पर्व है। प्रेम, उत्साह और आत्मदान का अनूठा मेल है इसमें। कृषि-संस्कृति की फसल कटाई का भी यह त्योहार है। असमिया नववर्ष बसंतोत्सव के इसी पर्व से शुरू होता है। बिहू की रोचक जानकारी दे रही हैं लेखिका
...वही सबसे अच्छा हंसता है
हंसना और रोना स्वाभाविक क्रियाएं हैं और हमारी निजता का प्रमाण भी। ये सहज संपर्क से आती हैं। जरा-सा किसी को गुदगुदा दीजिए सहज हंसी फूट पड़ती है। यह हमें मुक्त करती है और सामाजिक भी बनाती है
हमारे आनंद का फैलाव
हंसना एक आध्यात्मिक साधना भी है। जब आप गहरी और निर्मल हंसी हंसते हैं तो आपकी विचार प्रक्रिया रुक जाती है और आप गहरे ध्यान में चले जाते हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि हमारी सभ्यता ने हंसने की जगह गंभीरता को मूल्य बना रखा है, जबकि आधुनिक मनोविज्ञान और चिकित्सा विज्ञान ऐसा नहीं मानता
खिलखिलाहटों में
कुछ लोगों की पहचान ही उनकी हंसी होती है। कथाकार रवींद्र कालिया ऐसे ही व्यक्ति थे, जो मुश्किल से मुश्किल हालात को भी हंसी में उड़ा दिया करते थे। उनकी हंसी संक्रामक थी, जो दूसरों को भी खिलखिलाने पर मजबूर कर देती थी
हंसिए हर हाल में
हिंदी साहित्य में हंसने-हंसाने की बड़ी पुरानी परंपरा रही है, लेकिन मुश्किल यह है कि हमने कथित गंभीरता को बड़ा मूल्य बना रखा है। नतीजा यह है कि अब जीवन से सहज हंसी गायब हो गई है और हंसो-हंसाओ क्लब बनने लगे हैं
केवल हम ही नहीं हंसते
सभ्यता की दौड़ में बेशक हम मनुष्य बहुत आगे निकल आए हैं और हमारी हंसी का व्याकरण भी बहुत बदल गया है, लेकिन ऐसा नहीं कि सिर्फ मनुष्य ही हंसता है। बाकी जानवर भी हंसते हैं, बस उनके हंसने का तरीका अलग होता है
कहीं टैक्स न लग जाए
हंसी पर फिलहाल कोई टैक्स नहीं है। कभी हवा-पानी भी फ्री थे, पर अब अरबों-खरबों का व्यापार है। हंसी पर टैक्स लग गया तो सोचिए क्या हाल होगा? इसलिए अभी थोड़ा हंस लीजिए
...क्योंकि हंसी अब एक उत्पाद है
हंसी का अब अपना बाजार भी है, जो लगातार फैलता जा रहा है। एक दौर था जब फिल्मों में एकाध कॉमेडियन होता था. अब यह मामला फिल्मों और धारावाहिकों से बहत आगे निकल चका है। स्टैंडअप कॉमेडियन की अपनी दुनिया है और लगातार फैल रही है। हंसी अब उत्पाद है
होली के रंग दुनिया के संग
होली अब सिर्फ भारतीय पर्व नहीं रहा, बल्कि दुनिया में भारतीय जहां-जहां गए उनके साथ होली भी चलती चली गई। सबसे पहले गिरमिटियों के जरिये, फिर प्रवासी भारतीयों के जरिये। बेशक, देशकाल के हिसाब से उसका रूप-रंग थोड़ा बदला, लेकिन फगुआ राग नहीं
होते-होते हो रहे हैं पेशेवर
लेखक-प्रकाशक संबंध हमेशा से जटिल रहे हैं और दिलचस्प यह है कि दोनों को ही एक दूसरे की जरूरत हमेशा से रही है । अब चूंकि पुस्तकों का भी व्यवसायीकरण बढ़ा है तो लेखक और प्रकाशक भी ज्यादा पेशेवर हो रहे हैं । हालांकि अब भी जब तब यह रिश्ता कटु विवाद का रूप ले ही लेता है
हाशिये पर नहीं रहे हाशिये के लोग
हाशिये के लोगों को केंद्र में लानेवाला रहा है यह साल। खासकर ट्रांसजेंडर की दुनिया को लेकर लोगों की संवेदनशीलता बढ़ी है और उस पर कई रचनाएं आई हैं। बहुत सी साहित्यिक विधाओं पर संकट भी दिख रहा है, लेकिन लेखकों में गंभीरता की कमी है, जो थोड़ा उदास करनेवाली बात है, पर यह नई बात नहीं है। ऐसे दौर बीच बीच में आते ही हैं
हरा गुड्डा
पंद्रह साल की नाद्या और तीस साल का फौजी अफसर एक क्रिसमस पार्टी में मिलते हैं। अफसर को लेकर नाद्या की भावनाएं बहुत उलझी हुई हैं। अफसर एक हरे गुइडे के जरिये उससे अपना प्रेम व्यक्त करता है और फिर...