विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र से उन का सारा राजपाट दान में मांग लिया. राजा ने ऋषि को राजपाट देने का वचन दिया. उस के बाद ऋषि विश्वामित्र ने दान से पहले राजा से कुछ स्वर्ण मुद्राएं दक्षिणा के रूप में मांगी.
राजा हरिश्चंद्र अपना राजपाट विश्वामित्र को पहले ही दान में दे चुके थे. ऐसे में राजा को दक्षिणा देने के लिए स्वर्ण मुद्राएं उन्हें अपने श्रम से अर्जित करनी पड़ीं."
तब राजा हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र को दक्षिणा में स्वर्ण मुद्राएं देने के लिए खुद को परिवार सहित बेच दिया. वे मजदूर के रूप में श्मशान घाट पर शवों को जलाने का काम करने लगे.
रानी तारामती भी बेटे के साथ नगर में एक सेठ के घर मजदूरी करने लगी. ये उन के संघर्ष और विपदा के दिन थे.
विश्वामित्र एक दिन दोबारा राजा हरिश्चंद्र से मिले और बोले, "महाराज, यह सही है कि आप मुझे दान में राजपाट दे चुके हो, लेकिन अगर आप बस इतना कह दें कि आप ने ऐसा कोई वचन दिया ही नहीं था. आप अपने वादे से मुकर जाएं तो बिना बहस के मैं सारा राजपाट आप को लौटा दूंगा."
लेकिन सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के मन में विचार कौंधने लगे.
"नहीं, मुनिवर, मैं अपने वादे से कदापि मुकर नहीं सकता. सत्य के साथ रहना ही मेरा जीवन है, चाहे मेरे प्राण ही क्यों न निकल जाएं," राजा ने कहा.
अंत में राजा हरिश्चंद्र सत्यवादी होने की परीक्षा में पास हुए. विश्वामित्र ने उन का सारा राजपाट लौटा दिया.
Bu hikaye Champak - Hindi dergisinin October First 2023 sayısından alınmıştır.
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