बीते जून की एक सुबह और दिल्ली का अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स जैसी कल्पना की जा सकती है, नजारा वैसा ही था। देश के कोने-कोने आई अपार भीड़ और परची कटाने के लिए लगी एकाधिक बेसब्र कतारें। करीब पौन घंटा कतार में बिना हिले खड़े रहने के बाद सैकड़ों लोगों को अचानक अस्थायी रूप से बने एक हॉल में धकेल दिया जाता है। किसी को कुछ समझ नहीं आता कि कहां जाना है और क्या करना है। फिर वहां मौजूद निजी कंपनियों के सुरक्षाकर्मी घोषणा करते हैं, "अपने-अपने मोबाइल में ड्रीफकेस ऐप डाउनलोड कर के वहां से अपना टोकन ले लीजिए।"
यहां दो सवाल स्वाभाविक रूप से बनते थे। अगर ऑनलाइन ऐप से ही परची कटानी थी तो लाइन में क्यों खड़ा किया गया; और दूसरा, कि निजी कंपनी के ऐप से सरकारी चिकित्सा का टोकन लेने को क्यों कहा जा रहा है। वहां किसी ने यह सवाल नहीं किया। उलटे, ऐप डाउनलोड कर के टोकन लेने की उन लोगों में होड़-सी लग गई जिनके पास मोबाइल फोन थे। बिना मोबाइल वाले या बेसिक मोबाइल वाले लोगों को एक नई कतार में ठेल दिया गया। दिल्ली के एम्स से लेकर लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज तक तमाम राजकीय चिकित्सालयों में ऐसी घटना रोज धड़ल्ले से हो रही है। हर दिन खरीदारी से लेकर सरकारी सेवाओं तक और कैब बुक कराने से लेकर बैंक से अपना ही पैसा निकालने तक औसतन आधा दर्जन बार हम लोग अपने मोबाइल फोन और आधार कार्ड की मार्फत बाकायदे सरकारी कानूनों के हवाले से अपनी निजी सूचना निजी कंपनियों को सौंपे दे रहे हैं।
ऑस्ट्रेलिया के एक शख्स जूलियन असांज ने इन्हीं चीजों पर सवाल उठाते हुए अपना बौद्धिक और पेशेवर सफर आज से तीन दशक पहले शुरू किया था। नतीजतन, उनके ऊपर फर्जी मुकदमा हुआ। उन्हें जेल हुई। चौदह साल बाद जब वे आजाद हुए हैं, तो हम पाते हैं कि उनके कहे, किये और चेताये का हमारे समाज और उसके रोजमर्रा के धंधों पर कोई असर नहीं पड़ा है। लोग पूरी आजादी से अपना डेटा अपनी ही चुनी हुई सरकारों के कहने पर निजी कंपनियों को बांट रहे हैं और उसके बदले मिलने वाली सेवाओं में अपनी आजादी महसूस कर रहे हैं। निजी डेटा के बदले माल और सेवा का दिया जाना ऐसी नई गुलामी हैं जो आजादी की शक्ल में हमारे सामने परोसी गई हैं।
कैद और रिहाई के बीच
Bu hikaye Outlook Hindi dergisinin July 22, 2024 sayısından alınmıştır.
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