एक हैं शंकर लाल शर्मा। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी। याचिकाकर्ता अदालत में अपनी बात रख ही रहा था कि न्यायाधीशों ने इसे रोकना शुरू किया। शर्मा अंग्रेजी नहीं जानते थे, लिहाजा वे हाथ जोड़कर बोलते रहे। न्यायाधीशों ने उनसे कहा कि आप जो कुछ भी कह रहे हैं, हमें कुछ समझ नहीं आ रहा है। इस अदालत की भाषा हिंदी नहीं है। वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय में सुनवाई सिर्फ अंग्रेजी में होती है।
गैर हिन्दीभाषी पृष्ठभूमि के न्यायाधीश हिन्दी न समझ सकें, यह संभव है, समझा जा सकता है। लेकिन यही बात एक संस्था के तौर पर पूरी भारतीय न्यायपालिका के लिए शायद नहीं कही जा सकती। क्या भारतीय न्यायपालिका को अहसास है कि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने 2006 में किए गए अपने सर्वेक्षण में भारत में, भ्रष्टाचार के संदर्भ में, पुलिस और न्यायपालिका दोनों को लगभग एक साथ शीर्ष पर माना था?
यह सही है कि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की भाषा निश्चित रूप से समूची न्यायपालिका के लिए बोधगम्य थी। हालांकि उसकी बात पर ध्यान देने की कोई कानूनी अनिवार्यता नहीं है। लेकिन क्या यही बात उन टिप्पणियों के लिए भी कही जा सकती है, जो कानून की बिरादरी में महत्व रखती हैं? पाञ्चजन्य द्वारा आयोजित साबरमती संवाद कार्यक्रम में, और अन्यत्र भी, देश के विधि मंत्री किरेन रिजिजू कहते रहे हैं कि कॉलेजियम सिस्टम से आम लोग खुश नहीं हैं। उन्होंने कहा, “देश का कानून मंत्री होने के नाते मैंने देखा है कि न्यायाधीशों का आधा समय और दिमाग यह तय करने में लगा रहता है कि अगला न्यायाधीश कौन होगा। न्यायाधीश बिरादरी में कहीं भी न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं करती है ।" रिजिजू ने यह भी कहा कि कॉलेजियम प्रणाली संविधान के लिए 'विदेशी' है। उन्होंने कहा, "कोई भी चीज जो केवल अदालतों या कुछ न्यायाधीशों द्वारा लिए गए फैसले के कारण संविधान से अलग है, आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि निर्णय देश द्वारा समर्थित होगा।' रिजिजू ने कहा, "आप मुझे बताएं कि कॉलेजियम प्रणाली किस प्रावधान के तहत निर्धारित की गई है।"
Bu hikaye Panchjanya dergisinin December 18, 2022 sayısından alınmıştır.
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