इतिहास कहता है, पावन सरस्वती नदी के सूखने के बाद पूर्व की ओर पलायित हुई आर्य सभ्यता के लोगों की एक शाखा बढ़तीबढ़ती सदानीरा गंडक के तट पर पहुंची और यहीं बस गई। वे रुके और ईश्वर से हाथ जोड़कर प्रार्थना की- जल, औषधि, ग्राम, नगर, हर ओर शांति हो। तब किसी सभ्यता के फलनेफूलने की यही प्राथमिक शर्त होती थी। जल था, वन था, और था छह ऋतुओं का सुव्यवस्थित क्रम! सदानीरा के पावन जल से सिंचित ऐसी माटी, कि मुट्ठीभर बीज फेंककर निश्चिंत हो जाओ और तीन मास बाद जाकर बोझा भर काट लो।
उन महान पुरखों द्वारा रची गई सभ्यता काल के प्रवाह में अपना स्वरूप बदलते, बहती हुई आज जहां खड़ी है, उसके एक छोटे-से हिस्से को गोपालगंज कहते हैं।
यहीं फूंका गया था विद्रोह का बिगुल
बिहार का गोपालगंज ! पुराने हथुआ राज द्वारा बनवाए गए भगवान श्रीकृष्ण के प्राचीन गोपाल मंदिर के नाम पर इस शहर का नाम गोपालगंज पड़ा है। यह सौभाग्य ही है कि वह प्राचीन मंदिर अब भी पूरी भव्यता के साथ खड़ा है, वरना भारत के इतिहास में तलवारों की चोट मंदिरों के हिस्से में सर्वाधिक आई है।
गोपालगंज के संबंध में कोई भी बात कहते समय मैं यह कहने का मोह नहीं त्याग पाता कि अंग्रेज़ों के विरुद्ध प्रथम सशस्त्र आंदोलन इसी भूमि पर हुआ था। सन् 1764 में जब भारतीय शक्तियां बक्सर का युद्ध हार गईं तो यह भूमि भी अंग्रेज़ों के हिस्से में चली गई। अंग्रेज़ों ने इस हिस्से में भी अपनी चौकियां लगाईं, कर वसूलने के लिए कारिंदों की नियुक्ति हुई। कहीं-कहीं अंग्रेज़ अधिकारी भी दिखने लगे। पर विदेशी अधिपत्य को न माटी सहजता से स्वीकार कर पाती है, न माटी के लोग! तो यहां के लोग कैसे कर लेते? तब यहां के सामंत राजा फतेह बहादुर शाही ने विद्रोह का बिगुल फूंका।
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बच्चों को जन्मदात्री मां की गोद तो मिल रही है, लेकिन अब वे इतने भाग्यशाली नहीं कि उन्हें प्रकृति मां की गोद भी मिले- वह प्रकृति मां जिसके सान्निध्य में न केवल सुख है, बल्कि भावी जीवन की शांति और संतुष्टि का एक अहम आधार भी वही है। अतः बच्चों को कुदरत से प्रत्यक्ष रूप से जोड़ने के जतन अभिभावकों को करने होंगे। यह बच्चों के ही नहीं, संसार के भी हित में होगा।