भारत में वैदिक काल से ही गणराज्यों की परम्परा थी। तब कोई राज्य निरंकुश नहीं था। समस्त शासक प्रजा द्वारा निर्वाचित होते थे तथा 'गण' कहलाते थे। शकुंतला पुत्र भरत भी गणराज्य के प्रधान थे। राज्यों के चार प्रकार थे- राज्य, भौज्य, स्वराज्य एवं वैराज्य। 'राज्य' के प्रधान को ही 'राजा' कहते थे। 'भौज्य' गणराज्य था। उनके शासक को 'भोज' कहते थे। 'स्वराज्य' प्रत्यक्ष गणराज्य होता था। वहां की जनता स्वयं प्रत्यक्ष रूप से शासन चलाती थी। 'वैराग्य' में कोई शासन व्यवस्था नहीं रहती थी। जैसे-
"न राज्यं न च राजा सीत् न दण्डो न च दाण्डिकः ।
धर्मेणैव प्रजः सर्वाः रक्षन्तिस्म परस्परम् ।।"
अर्थात् न राज्य था, न राजा था न व्यवस्था थी और न न्यायाधीश था। समस्त प्रजा धर्म पालन के द्वारा एक दूसरे की रक्षा करती थी।
कालांतर में समुद्र सूखकर 'मगध' नाम का प्रदेश उभर आया। वहां का शासक निरंकुश था। उस प्रकार के राज्य को 'साम्राज्य' नाम मिला। सम्राटों ने अंततः गुप्तकाल तक आकर भारत के गणराज्यों की परम्परा को समाप्त कर दिया। चंद्रगुप्त मौर्य तथा विष्णुगुप्त चाणक्य ने गणराज्यों को संगठित कर ही सिकंदर को भारत से वापस धकेल दिया था। गौतम बुद्ध के पिता शुद्धोदन 'शाक्य' गणराज्य के प्रधान थे। वैशाली गणराज्य तो गुप्तकाल तक रहा। उज्जयिनी के शकारि विक्रमादित्य की मुद्राओं में अंकित है- 'मानवानां प्रमुख, समानानं ज्येष्ठः' अर्थात् मानव गण का प्रमुख और समानों में ज्येष्ठ मात्र था।
ऐसे समृद्ध गणराज्यों की परम्परा के समाप्त होने तथा साम्राज्यों के आने से हमारे समाज की सामूहिक ताकत घट गई तथा 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' का बर्ताव होने से विकराल फूट फैल गई जिसका परिणाम हमें लम्बी परतंत्रता के रूप में भुगतना पड़ा।
Diese Geschichte stammt aus der January 2024-Ausgabe von Sadhana Path.
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