कारोबार को लगे पंख
DASTAKTIMES|January 2025
21वीं सदी में भारतीय अर्थव्यवस्था ने जबरदस्त रफ्तार पकड़ी। 2010 में पहली बार भारतीय अर्थव्यवस्था ने 1 ट्रिलियन डॉलर का आंकड़ा हासिल किया। इस मुकाम पर पहुंचने में आज़ाद भारत को 63 साल का सफर तय करना पड़ा, लेकिन ट्रिगर दब चुका था। अगले सात साल यानी 2017 तक यह दो ट्रिलियन डॉलर पर पहुंच गई और फिर तीन साल में यानी 2020 में इसने तीन ट्रिलियन डॉलर का निशान भी पार कर लिया | अर्थव्यवस्था के हैरतअंगेज उतार-चढ़ाव और इस रफ़्तार की दिलचस्प कहानी बता रहे हैं आर्थिक मामलों के जाने-माने विशेषज्ञ आलोक जोशी ।
आलोक जोशी
कारोबार को लगे पंख

भारतीय अर्थव्यवस्था के पिछले बीस साल के इतिहास को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। हालांकि पहली नजर में यह आसान है कि किसी भी बीस साल के दौर को दस-दस साल के दो हिस्सों में बांट दिया जाए। लेकिन यहां बात इतनी आसान नहीं है। 2004 से 2014 तक मनमोहन सिंह की सरकार और 2014 के बाद नरेंद्र मोदी की सरकार। राजनीति ही नहीं अर्थनीति के मोर्चे पर भी यह विभाजन किसी भी पैमाने पर गलत नहीं ठहराया जा सकता। खासकर अब जबकि सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच जबर्दस्त बहस चल रही है कि 2004 से 2014 का दौर भारतीय अर्थनीति का सबसे तेज़ विकास का वक्त था या निरा एक अंधायुग था। खुद प्रधानमंत्री मोदी ने ही संसद में कहा है कि यह लॉस्ट डिकेड यानी एक खोया हुआ या थोड़ी सख्त भाषा मे कहें तो बर्बाद दशक था यानी आर्थिक मोर्चे पर जो कुछ हो सकता था, उसके मुकाबले यहां सारे मौके गंवा दिए गए। इस मामले पर दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क भी हैं और आस्थाएं भी। मगर विभाजन तक पहुंचने से पहले जरूरी है कि बीस साल पहले को पूरी ईमारदारी से याद किया जाए।

2004 वही साल है जब देश में इंडिया शाइनिंग का नारा लगा और अचानक भारतीय जनता पार्टी के चुनाव हार जाने का झटका खासकर व्यापार कारोबार की दुनिया के लिए बहुत बड़ा सदमा था। इस का ही असर था कि मुंबई शेयर बाज़ार के इतिहास की सबसे बड़ी गिरावट दर्ज हुई थी, सेंसेक्स एक दिन में 15.52 फीसदी गिरा था जो तब तक अंकों के लिहाज से सबसे बड़ी गिरावट थी, मगर प्रतिशत में देखें तो आज तक भी बाज़ार किसी एक दिन उससे ज्यादा नहीं गिरा है। यह वाजपेयी सरकार के चुनाव हारने की निराशा थी । लेकिन एक अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने की खबर ने कारोबार जगत के जख्मों पर मरहम का काम किया और बाज़ार फिर चल निकला और ऐसा चला कि 2008 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा संकट का असर आने तक वह लगातार रिकॉर्ड तोड़ता रहा। थोड़े में समझें तो 20034 में 3000 के आसपास से चलकर जनवरी 2008 तक सेंसेक्स 21 हजार के पार जा चुका था, यानी सात गुने से ज्यादा। लेकिन उसके बाद मुद्रा संकट का झटका ऐसा लगा कि मार्च तक यह गिरकर वापस साढ़े आठ हजार के करीब पहुंच गया। दरअसल अनेक मोर्चों पर यही मनमोहन सिंह के कार्यकाल का सबसे विकट समय था।

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