जीवन प्रबन्धन का अनुपम ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता
Jyotish Sagar|December-2024
यह सर्वविदित है कि महाभारत के युद्ध में ही श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था। यह उपदेश मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी (11 दिसम्बर) को प्रदत्त किया गया था। महाभारत के युद्ध से पूर्व पाण्डव और कौरवों की ओर से भगवान् श्रीकृष्ण से सहायतार्थ अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही गए थे, क्योंकि श्रीकृष्ण शक्तिशाली राज्य के स्वामी भी थे और स्वयं भी सामर्थ्यशाली थे।
जीवन प्रबन्धन का अनुपम ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता

श्रीकृष्ण की सेना भी बहुत बड़ी थी। जब दोनों सहायतार्थ गए, तो श्रीकृष्ण ने दोनों के समक्ष अपना मन्तव्य रखते हुए कहा कि मेरे लिए तुम दोनों समान हो, अतः मैं दोनों की सहायता करूँगा, पर एक पक्ष के लिए मेरी सम्पूर्ण नारायणी सेना होगी और दूसरे पक्ष के लिए मैं स्वयं। साथ ही यह भी शर्त है कि मैं युद्ध में शस्त्र ग्रहण नहीं करूँगा। अब तुम्हें जो अच्छा लगे, चुन लो।

सर्वप्रथम दुर्योधन की जो इच्छा हो, वह माँगे। दुर्योधन अति भौतिकवादी था, मन्दबुद्धि वाला था, सेना पर ही भरोसा करने वाला था, अतः उसने श्रीकृष्ण की नारायणी सेना को ही चुना। दूसरी ओर अर्जुन भक्त तथा भगवान् के रहस्य को जानने वाला था। वह अच्छी तरह से जानता था कि श्रीकृष्ण स्वयं पूर्णावतार हैं, अलौकिक शक्ति वाले हैं। इनके सामने सेना क्या देवसेना भी तुच्छ है, अतः इन्हें ग्रहण करने में ही इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर जाएँगे। इसलिए उसने भगवान् श्रीकृष्ण को चुनने में ही स्वयं का कल्याण समझा।

दुर्योधन ने भयंकर भूल की थी। उसका सम्पूर्ण जीवन भूलों से भरा हुआ था। वह जड़वाद का पुजारी था। अनीति के पथ पर चलकर उसने स्वयं का जीवन कलुषित कर लिया था। वह परम पिता परमात्मा की उपेक्षा कर संसारी शक्तियों के भौतिक बल पर जीवन में विजय पाना चाहता था। यह उसकी भूल थी। बाद में अकेले श्रीकृष्ण अपनी समस्त सेना से अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुए।

दुर्योधन के समान हम भी आज पग-पग पर भूल करते हैं। ईश्वर की उपेक्षा कर हम अपनी ही तुच्छ शक्ति पर सब-कुछ पाने का अहंकार करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप अन्त में हमें अशान्ति और असफलता ही प्राप्त होती है। जब युद्ध आरम्भ हुआ, नियमतः भगवान् श्रीकृष्ण को अस्त्र-शस्त्र तो ग्रहण नहीं करना था, पर अर्जुन उनके बिना युद्धस्थल में जाना नहीं चाहता था। उसने अन्त में भगवान् को सारथी बनाया। उसकी युद्ध में केवल विजय ही नहीं हुई वरन् अर्जुन का जीवन भी प्रभुमय हो गया। युद्ध के पूर्व उसे एक प्रकार से सगे-समबन्धियों के प्रति जो मोह उत्पन्न हो गया था, गीता श्रवण द्वारा वह भी नष्ट हो गया।

यह ध्रुव सत्य है कि जहाँ ईश्वरीय सहायता दृश्य अथवा अदृश्य रूप से मिलती है, वहाँ विजय ही विजय मिलती है। यथा;

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बारहवाँ भाव : मोक्ष अथवा भोग
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