भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में आम धारणा तो यही है कि रूस- यूक्रेन युद्ध की वजह से दुनिया भर में रोजमर्रा की चीजों के दाम में उछाल, चीन में आ रही तेज सुस्ती और अमेरिकी फेडरल बैंक की तरफ से आक्रामक मौद्रिक सख्ती सरीखे झंझावातों के बावजूद यह मजबूती से उबर रही है. घरेलू महंगाई अभी भी ज्यादा होने के बावजूद उतार पर है. राजस्व में मजबूत बढ़ोतरी से उत्साहित राजकोषीय घाटा मजबू की राह पर है और मौद्रिक नीति को ठीक ही कसा गया है. अकेली भौतिक परेशानी चालू खाते के घाटे (सीएडी) में तेज इजाफा है. इसकी वजह है तेल की ऊंची वैश्विक कीमतें और घरेलू मांग में बहाली के चलते गैर-तेल आयात में भारी बढ़ोतरी. रुपए में कमजोरी चालू खाते में भारी घाटे के लिए धन जुटाने की मुश्किल से उपजी है, खासकर जब वैश्विक ब्याज दरें एकदम बहुत बढ़ गई हैं और डॉलर दशकों के सबसे मजबूत स्तर पर है. रुपए में आ रहे तीव्र उतार-चढ़ाव में नरमी लाने की कोशिश में विदेशी मुद्रा भंडार को जमकर खर्च किया गया, बुरा वक्त पीछे छूट चुका है और विदेशी मुद्रा भंडार इतना है कि किसी भी उथल-पुथल से निबट ले.
यहां पेश है एक वैकल्पिक नैरेटिव, इकॉनमिक रिकवरी की रफ्तार तो अच्छी है, फिर भी वह उस 7 फीसद से नीचे बनी हुई है जिसकी ओर महामारी से पहले के वृद्धि के रुझान ने इशारा किया था. अपने आप में यह अपूर्ण है और महामारी से हुआ आर्थिक नुक्सान भारी और स्थायी हो सकता है. ज्यादा मार्के की बात यह है कि अगली दो तिमाहियों के दौरान वृद्धि की रफ्तार बहुत धीमी होनी तय है. सरकार और आरबीआइ इस साल औसतन 6.5-7 फीसद की वृद्धि देख रहे हैं. वित्त वर्ष की पहली दो तिमाहियों में रफ्तार अगर 13.5 फीसद और 6.3 फीसद रही है, तो साल की दूसरी छमाही में वृद्धि को 4-5 फीसद तक धीमा होना चाहिए, तभी 6.5-7 फीसद का औसत आ पाएगा. यह अर्थशास्त्र नहीं, गणित का सितम है !
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